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________________ गाथा-१०७ प्रवचनसार अनुशीलन अर्थात् उसरूप होने का अभाव है, वह तद्-अभाव लक्षण अतद्भाव है; जो कि अन्यत्व का कारण है। उसीप्रकार एक द्रव्य में जो सत्ता गुण है; वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं है और जो द्रव्य, अन्य गुण या पर्याय है, वह सत्ता गुण नहीं है - इस प्रकार एक-दूसरे में जो तप होने का अभाव है, वह तद्-अभाव लक्षण अतद्भाव है, जो कि अन्यत्व का कारण है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में पहले तो उक्त उदाहरण के माध्यम से ही बात को स्पष्ट करते हैं; किन्तु बाद में उसे सिद्ध परमात्मा पर भी घटित करके बताते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी उक्त गाथा के भाव को इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - (छप्पय) सत्ता तीन प्रकार सहित विस्तार कहा है। दरवसत्त गुनसत्त सत्त परजाय गहा है।। जो तीनों के माहि परस्पर भेद विराजै। सोई है अन्यत्व भेद इमि जिन धुनि गाजे ।। है दरवसत्त गुन-परज-गत गुनसत एक सुधरम-रत। परजायसत्त क्रम को धरै, यारौं भेद प्रमानियत ।। भगवान की दिव्यध्वनि में ऐसा आया है कि द्रव्य सत्, गुण सत् और पर्याय सत् - इसप्रकार सत्ता का विस्तार तीन रूपों में होता है और इन तीनों में परस्पर जो भेद है, वह भेद अन्यत्व कहलाता है। गुण-पर्यायगत द्रव्य सत्, सब धर्मों में व्याप्त गुण सत् और क्रमभावी पर्यायों में व्याप्त पर्याय सत् इसप्रकार के भेदों से प्रमाणित करना चाहिए। (मनहरण) जैसे एक मोतीमाल तामें तीन भांत सेत, सेत हार सेत सूत सेतरूप मनिया। तैसे एक दर्वमाहिं सत्ता तीन भांत सोहै, दर्वसत्ता गुनसत्ता पर्जसत्ता भनिया ।। दरव की सत्ता है अनंत धर्म सर्वगत, गुन की है एक ही धरमरूप गनिया। परज की सत्ता क्रमधारी ऐसी भेदाभेद, साधी मुनि वृन्द श्रुतसिंधु के मथनिया ।। आगमरूपी समुद्र का मंथन करनेवाले मुनिराजों ने सत्ता और द्रव्य के कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद को इसप्रकार सिद्ध किया है कि जिसप्रकार एक मोती की माला में सफेद हार, सफेद सूत और सफेद मणियाँ - इसप्रकार तीन प्रकार का सत् देखने में आता है; उसीप्रकार एक द्रव्य में द्रव्य सत्, गुण सत् और पर्याय सत् - इसप्रकार तीनप्रकार का सत् कहा गया है। इनमें द्रव्य सत् अनंत धर्मों में व्याप्त होने से सर्वगत है, गुण सत् एक ही धर्म में होता है और पर्याय सत् क्रमधारी पर्यायें होती हैं। इसप्रकार यह सत्तागुण द्रव्य से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है। पण्डित देवीदासजी ने भी मोतियों की माला के उदाहरण से उक्त बात समझाई है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "एक आत्मा की सत्ता दूसरे आत्मा और अन्य द्रव्यों की सत्ता से भिन्न है, वह किसी के साथ एकमेक नहीं है। ___सत्ता गुण का तीन प्रकार से विस्तार किया गया है। शक्तिवान, शक्तियाँ और अंश - तीनों एक होकर सत् अखण्ड द्रव्य है; फिर भी उनमें परस्पर अतद्भाव है। जो द्रव्य है, वह गुण अथवा पर्याय नहीं है; जो गुण है, वह द्रव्य अथवा पर्याय नहीं है और जो पर्याय है, वह द्रव्य अथवा गुण नहीं है। उसरूप होने का अभाव ही अतद्भाव है। ऐसा वस्तु का स्वभाव यथार्थ जानना सम्यग्ज्ञान का कारण है। अनन्त द्रव्य, गुण और पर्यायों का ज्ञान करना राग का कारण नहीं है।' सम्यग्दृष्टि जीवों को अन्तर अनुभव के समय गुण-गुणी में कथंचित् १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२६३
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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