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________________ प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्य के स्वरूप को बनाये रखने का कारण अस्तित्व गुण है। इस अस्तित्व गुण को द्रव्यप्रधान कथन द्वारा सत् शब्द से कहा गया है। द्रव्य का स्वभावभूत परिणाम अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रुव उस सत् से भिन्न नहीं है और उत्पाद-व्यय-ध्रुव तीनों होकर जो परिणाम हुआ, वही सत्ता है।' उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप परिणाम में द्रव्य स्थित है, ऐसा कहो अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रुव परिणाम जो कि अस्तित्व गुण है, उसमें द्रव्य स्थित है - ऐसा कहो - दोनों का अभिप्राय एक ही है; क्योंकि अस्तित्व गुण स्वयं उत्पाद-व्यय-ध्रुवपरिणामरूप ही है। इसलिए उत्पाद-व्ययध्रुवरूप परिणाम सत् शब्द से कहा गया है। सभी जड़ पदार्थ और आत्मा समय-समय किसतरह परिणमन कर रहे हैं, उस परिणाम को बताकर वह परिणाम स्वयं ही सत्ता है और सत्ता द्रव्य से भिन्न नहीं है - ऐसा सिद्ध करते हैं।" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त जो परिणाम है, वह सत् है और वह सत् द्रव्य का लक्षण है। सत् के ही दूसरे नाम अस्तित्व और सत्ता हैं । सत्ता गुण है और द्रव्य गुणी है। इसप्रकार इनमें गुण-गुणी सम्बन्ध है। और आगामी गाथा में यह कहेंगे कि द्रव्य का जो मूलभूत लक्षण है, वह सत्ता गुण अर्थात् अस्तित्व है; वह गुण और द्रव्य अन्य-अन्य नहीं हैं, अनन्य ही हैं। यदि भेदनय से देखें तो सत्ता गुण है और द्रव्य गुणी है; इसप्रकार इनमें गुण-गुणी का भेद होने से दोनों अन्य-अन्य हैं; किन्तु अभेदनय से देखें तो दोनों एक ही हैं। इसप्रकार गुण और गुणी कथंचित् अन्य-अन्य अर्थात् अनेक और कथंचित् अनन्य अर्थात् एक हैं। जिनधर्म स्याद्वादरूप है और स्याद्वाद में यह सब सहज घटित होता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२८५ २. वही, पृष्ठ-२८५ ३. वही, पृष्ठ-२८६ प्रवचनसार गाथा ११० विगत गाथा में सत्ता और द्रव्य में गुण-गुणीपना सिद्ध किया है और अब इस गाथा में यह बताते हैं कि इनमें गुण-गुणी संबंध होने पर भी गुण और गुणी - दोनों एक ही हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार हैणत्थिगुणो त्तिवकोई पजाओत्तीह वा विणा दव्वं । दव्वत्तं पुण भावो तम्हा दव्वं सयं सत्ता ।।११०।। (हरिगीत) पर्याय या गुण द्रव्य के बिन कभी भी होते नहीं। द्रव्य ही है भाव इससे द्रव्य सत्ता है स्वयं ।।११०।। इस विश्व में द्रव्य से पृथक् गुण या पर्यायें नहीं होतीं। द्रव्यत्व ही भाव है अर्थात् अस्तित्व गुण है; इसलिए द्रव्य स्वयं सत्ता ही है।। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार पीलापन और कुण्डलादि सोने से पृथक् नहीं होते; उसीप्रकार गुण और पर्यायें द्रव्य से पृथक् नहीं होती। द्रव्य के स्वरूप का वृत्तिभूत अस्तित्व नाम से कहा जानेवाला द्रव्यत्व; द्रव्य का भाव नाम से कहा जानेवाला गुण होने से क्या वह अस्तित्व द्रव्य से पृथक् होगा ? नहीं होगा; तो फिर द्रव्य स्वयं ही सत्ता क्यों न हो ? तात्पर्य यह है कि द्रव्य स्वयं सत्तास्वरूप ही है।" आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में मुक्तात्मद्रव्य का उदाहरण देते हुए इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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