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प्रवचनसार अनुशीलन कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा को ६ छन्दों में व्यक्त करते हैं; उनमें से कुछ दोहे इसप्रकार हैं
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(दोहा)
यहाँ प्रश्न कोई करत उतपादादिक तीन । जुदे - जुदेसमयनि विषै क्यों नहिं कहत प्रवीन ।। तीन काज एकै समै कैसे हो हैं सिद्ध । समाधान याको करौ हे आचारज वृद्ध ।। उतपादादिक के पृथक-पृथक दरव जो होय । तब तो तीनों समय में तीन संभवै सोय ।। जहाँ एक ही दरव है तहँ इक समय मँझार । तीनों होते संभवत दरवदिष्टि के द्वार ।।
यहाँ कोई प्रश्न करता है कि यदि तुम चतुर हो तो ये उत्पादादिक जो तीन हैं, उन्हें एक समय में ही क्यों कहते हो, अलग-अलग क्यों नहीं कहते । एकसाथ तीन कार्य किस प्रकार हो सकते हैं ? हे ज्ञानवृद्ध आचार्यदेव! इस बात का समाधान करिये।
आचार्यदेव कहते हैं कि यदि भिन्न-भिन्न द्रव्यों के उत्पादादि हों, तभी तीनों को भिन्न-भिन्न समय में कहा जा सकता है।
जहाँ एक द्रव्य में तीनों घटित करना हों तो द्रव्यदृष्टि से एक समय में तीनों होना संभव है।
पण्डित देवीदासजी ने भी इस गाथा के भाव को इसी रूप में प्रस्तुत कर दिया है।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
" द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, स्थिति और नाश नाम के अर्थों के साथ वास्तव में एकमेक है; इसीलिए इन तीनों का समुदाय वास्तव में द्रव्य ही है।
बालक जन्मता है, कुछ वर्ष जीता है अर्थात् टिकता है और पश्चात् मृत्यु को प्राप्त होता है; इसप्रकार उत्पाद-ध्रुव-व्यय का समय पृथक्पृथक् है - ऐसा अज्ञानी कहता है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ २१६
२. वही, पृष्ठ- २१७
गाथा - १०२
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अब उपरोक्त शंका का समाधान करते हुए अज्ञानी को कहा जाता है कि यदि उत्पाद होने के समय सम्पूर्ण द्रव्य उत्पन्न होता हो तो तथा व्यय होने के समय सम्पूर्ण द्रव्य का नाश होता हो तो और ध्रुव रहने के समय सम्पूर्ण द्रव्य केवल ध्रुवत्व ही हो तो तुम्हारा तर्क उत्पाद, व्यय और ध्रुवत्व के समय भेद की बात सही ठहरे।
यदि सम्पूर्ण द्रव्य एक अंश में आ जाता हो तो अज्ञानी की उक्त बात बराबर है; किन्तु ऐसा नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण द्रव्य अकेले उत्पाद में अथवा अकेले व्यय में अथवा अकेले ध्रुव में नहीं आता, अपितु तीनों एक होकर एक द्रव्य हैं, इसीलिए उनमें समय-भेद नहीं है। इसीतरह आत्मा में भी सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति, मिथ्यादर्शन का व्यय और आत्मा का ध्रुवत्व एक ही समय में है, इनमें समयभेद नहीं है । इसतरह प्रत्येक आत्मा और परमाणु में उत्पाद-व्यय-ध्रुव एक ही समय में हैं।
जो उत्पाद का लक्षण है, वह व्यय तथा ध्रुव का लक्षण नहीं है । जो व्यय का लक्षण है, वह उत्पाद तथा ध्रुव का लक्षण नहीं है। जो ध्रुव का लक्षण है, वह उत्पाद तथा व्यय का लक्षण नहीं है। लक्षण पृथक्-पृथक् हैं, इसीलिए लक्ष्य भी पृथक्-पृथक् हैं। यदि तीनों का एक लक्षण हो तो तीनों एक हो जायेंगे, किन्तु ऐसा नहीं है। एक लक्षणवाले को दूसरे के लक्षण से पहिचानना उपचार कथन है।
इसमें से दो न्याय निकलते हैं - १. उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व का क्षणभेद दूर किया है अर्थात् तीनों का एक ही समय है।
२. तीनों एक होकर एक द्रव्य हैं, अन्य द्रव्य नहीं।
देखो, यहाँ प्रत्येक पर्याय के जन्मक्षण की बात कही है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पर्याय की उत्पत्ति का क्षण सुनिश्चित है। जिस क्षण में जो पर्याय होनी है, उस समय वही पर्याय होगी, कोई अन्य नहीं । जन्मक्षण के समान व्ययक्षण भी सुनिश्चित है । जब पर्याय का जन्मक्षण और व्ययक्षण सुनिश्चित है तो फिर क्या शेष रह जाता है ?
उक्त कथन से सहज ही क्रमबद्धपर्याय की सिद्धि होती है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ २१८
३. वही, पृष्ठ २३१
२. वही, पृष्ठ- २१८-२१९ ४. वही, पृष्ठ- २३२