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________________ प्रवचनसार गाथा १०३ विगत गाथा में यह बताया गया है कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य में कालभेद नहीं है और अब इस गाथा में अनेकद्रव्यपर्यायों द्वारा द्रव्य के उत्पादव्यय-ध्रौव्य बताये जा रहे हैं गाथा मूलत: इसप्रकार है - पाडुब्भवदिय अण्णोपज्जाओपजओवयदि अण्णो। दव्वस्स तं पि दव्वं णेव पणटुं ण उप्पण्णं ।।१०३।। (हरिगीत) उत्पन्न होती अन्य एवं नष्ट होती अन्य ही। पर्याय किन्तु द्रव्य ना उत्पन्न हो ना नष्ट हो ।।१०३।। द्रव्य की अन्य पर्याय उत्पन्न होती है और कोई अन्य पर्याय नष्ट होती है; फिर भी द्रव्य न तो नष्ट होता है और न उत्पन्न होता है। आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "जिसप्रकार एक तीन अणुवाली त्रि-अणुक समानजातीय अनेकद्रव्यपर्याय विनष्ट होती है और दूसरी चार अणुवाली (चतुरणुक) समानजातीय अनेकद्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है; परन्तु वे तीन या चार पुद्गल परमाणु तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। इसीप्रकार सभी समानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट होती हैं और उत्पन्न होती हैं; परन्तु समानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। जिसप्रकार एक मनुष्यत्वरूप असमानजातीय द्रव्यपर्याय विनष्ट होती है और दूसरी देवत्वरूप असमानजातीय द्रव्यपर्याय उत्पन्न होती है; परन्तु वह जीव और पुद्गल तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। इसीप्रकार सभी असमानजातीय द्रव्यपर्यायें विनष्ट हो जाती हैं और उत्पन्न होती हैं, परन्तु असमानजातीय द्रव्य तो अविनष्ट और अनुत्पन्न ही रहते हैं। गाथा-१०३ इसप्रकार द्रव्य अपने द्रव्यरूप से ध्रुव और द्रव्यपर्यायों द्वारा उत्पादव्ययरूप है; इसप्रकार द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप हैं।" ___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए मोक्षपर्याय के उत्पाद, मोक्षमार्गरूप पर्याय के व्यय और शुद्धद्रव्यार्थिकनय के विषयभूत द्रव्य के ध्रुव रहने का उदाहरण देते हैं। साथ में अथवा के रूप आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा प्रस्तुत उदाहरणों को भी प्रस्तुत कर देते हैं। __ आचार्य अमृतचन्द्र समानजातीय और असमानजातीय द्रव्यपर्यायों पर घटित करते हैं तथा आचार्य जयसेन द्रव्यपर्यायों के साथ-साथ गुणपर्यायों पर भी घटित करते हैं। ___कविवर वृन्दावनदासजी एवं पण्डित देवीदासजी भी बड़ी ही सहजता से इस गाथा के भाव को भलीभाँति प्रस्तुत कर देते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “यहाँ कोई तर्क करता है कि पहले दस परमाणु का स्कंध था; फिर उसमें पाँच परमाणु मिले तो वह पन्द्रह परमाणुओं का स्कंध हुआ; इसीलिए पर्याय में से पर्याय हई है। उसकी यह बात असत्य है; क्योंकि दस परमाणुओं की पूर्व की स्कंधरूप अवस्था का व्यय हुआ है, पाँच परमाणुओं के मिलने पर पन्द्रह परमाणुओं की नयी स्कंधरूप अवस्था का उत्पाद हुआ और परमाणु द्रव्य में से नयी पर्याय आई है, किन्तु पूर्व की पर्याय में से नयी पर्याय नहीं आई है।" ___उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि उत्पन्न और नष्ट तो पर्यायें होती हैं, द्रव्य तो सदा अनुत्पन्न और अविनष्ट ही रहता है। दूसरी बात यह है कि पर्याय में से पर्याय का उत्पाद नहीं होता; पर्याय की उत्पत्ति तो द्रव्य में से ही होती है। ____ ध्यान रहे, यहाँ उदाहरण के रूप में सम्पूर्ण चर्चा द्रव्यपर्यायों की हो रही है; अतः सभी बातों को द्रव्यपर्यायों पर घटित करना ही अधिक उचित है । गुण-पर्यायों की चर्चा अगली गाथा में की ही जा रही है। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-३, पृष्ठ-२३७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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