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गाथा-१०२
प्रवचनसार गाथा १०२ १००वीं गाथा में उत्पाद, व्यय बिना नहीं होता; व्यय, उत्पाद बिना नहीं होता और उत्पाद-व्यय, ध्रुवत्व बिना नहीं होते; इसप्रकार इनमें वस्तुभेद नहीं हैं' - यह बताया था। १०१वीं गाथा में उत्पादव्यय-ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में होती हैं; अत: वे सभी द्रव्य हैं, द्रव्यान्तर नहीं - यह बताया था और अब इस १०२वीं गाथा में यह बताया जा रहा है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य एक ही समय में हैं; इनमें कालभेद नहीं है। गाथा मूलत: इसप्रकार है - समवेदं खलु दव्वं संभवठिदिणाससण्णिदतुहिं । एक्कम्मि चेव समये तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं ।।१०२।।
(हरिगीत) उत्पाद-व्यय-थिति द्रव्य में समवेत हों प्रत्येक पल ।
बस इसलिए तो कहा है इन तीनमय हैं द्रव्य सब ।।१०२।। द्रव्य एक ही समय में उत्पाद, व्यय और स्थिति नाम के अर्थों (पदार्थों) के साथ एकमेक ही हैं; इसलिए ये तीनों द्रव्य ही हैं।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“वस्तु का जो जन्मक्षण है, वह जन्म से ही व्याप्त होने से स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है; जो स्थितिक्षण है, वह उत्पाद और व्यय के बीच में मजबूती से स्थापित है, इसकारण जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है और जो नाशक्षण है, वह वस्तु उत्पन्न होकर व स्थिर रहकर फिर नाश को प्राप्त होती है, इसकारण जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है।
इसप्रकार युक्ति से विचार करने पर उत्पादादिक में क्षणभेद है - यह बात चित्त में उत्पन्न होती है।
यदि कोई इसप्रकार की आशंका उपस्थित करता है तो उससे कहते
हैं कि उत्पादादि में इसप्रकार का क्षणभेद तभी संभव है कि जब यह माना जाय कि द्रव्य स्वयं ही उत्पन्न होता है, स्वयं ही नष्ट होता है और स्वयं ही स्थिति को प्राप्त रहता है; परन्तु ऐसा तो नहीं माना है। माना तो यह गया है कि उत्पादादि पर्यायों के ही हैं। ऐसी स्थिति में क्षणभेद कैसे हो सकता है?
अब इस बात को सोदाहरण विस्तार से समझाते हैं - जिसप्रकार कुम्हार, दण्ड, चक्र, चीवर और डोरी द्वारा किये जानेवाले संस्कार की उपस्थिति में जो रामपात्र का जन्मक्षण होता है, वही मिट्टी के पिण्ड का नाशक्षण होता है और वही दोनों कोटियों में रहनेवाले मिट्टीपन का स्थितिक्षण होता है।
इसीप्रकार अंतरंग और बहिरंग साधनों द्वारा किये जानेवाले संस्कारों की उपस्थिति में जो उत्तरपर्याय का जन्मक्षण होता है, वही पूर्वपर्याय का नाशक्षण होता है और वही दोनों कोटियों में रहनेवाले द्रव्यत्व का स्थितिक्षण होता है।
जिसप्रकार रामपात्र, मिट्टी का पिण्ड और मिट्टीपन में उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य पृथक्-पृथक् रहते हुए भी त्रिस्वभावस्पर्शी मिट्टी में वे सभी एकसाथ एकसमय में ही देखे जाते हैं; उसीप्रकार उत्तरपर्याय, पूर्वपर्याय
और द्रव्यत्व में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पृथक-पृथक होने पर भी त्रिस्वभावस्पर्शी द्रव्य में वे तीनों एकसाथ एक समय में ही देखे जाते हैं।
जिसप्रकार रामपात्र, मिट्टी का पिण्ड और मिट्टीपन में रहनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य मिट्टी ही हैं, अन्य वस्तु नहीं। उसीप्रकार उत्तरपर्याय, पूर्वपर्याय और द्रव्यत्व में रहनेवाले उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यत्व द्रव्य ही हैं; अन्य पदार्थ नहीं।”
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए ‘उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व का एक काल हैं' - यह समझाने के लिए आत्मानुभूति पर्याय के उत्पाद, मिथ्यात्व परिणति के नाश तथा दोनों के आधारभूत आत्मद्रव्यत्व की अवस्थिति का उदाहरण देते हैं। साथ में टेढी अंगुली, ऋजुगति, क्षीणकषाय के अन्तिम समय में केवलज्ञान की उत्पत्ति के उदाहरणों से भी इस विषय को समझाते हैं।