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________________ प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार इन गाथाओं में और उनकी टीका में यह कहा गया है कि जिसप्रकार यह लोक अनन्त जीवों से ठसाठस भरा हुआ है; उसीप्रकार अनन्त कार्मण वर्गणाओं से भी भरा हुआ है; इसलिए जब आत्मा के रागादिभावों का निमित्त पाकर कार्मण-वर्गणायें अपनी पर्यायगत योग्यता से कर्मरूप परिणमित होती हैं; तब उन वर्गणाओं को दूसरी जगह से नहीं लानी पड़ती है; अपितु जहाँ जीव है, उसी स्थान से स्थित कार्मणवर्गणायें ही कर्मरूप परिणमित हो जाती हैं। इसप्रकार यह सुनिश्चित हुआ कि न तो आत्मा पौद्गलिक कार्मणवर्गणाओं को कर्मरूप परिणमाता है और न उन्हें कहीं से लाता ही है। वहीं स्थित वे कार्मण वर्गणायें आत्मा के रागादिभावों का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणमित हो जाती हैं, आत्मा से बंध जाती हैं - ऐसा ही सहज निमित्त नैमित्तिक भाव बन रहा है। ३०४ समवशरण में भी तो बाग-बगीचें हैं, नृत्यशालाएँ - नाट्यशालाएँ हैं, उनका दर्शन सम्यग्दर्शन का निमित्त नहीं बनता है; अपितु दिव्यध्वनि में आनेवाला जो मूल तत्त्वोपदेश है, वही सम्यग्दर्शन का देशनालब्धिरूप निमित्त है । रंगारंग के कार्यक्रम में तो राग-रंग में ही निमित्त बनते हैं, वीतरागतारूप धर्म के निमित्त तो वीतरागता के पोषक कार्यक्रम ही हो सकते हैं। अत: सम्यग्दर्शन के निमित्तभूत इन महोत्सवों में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए कि इनमें अधिकतम कार्यक्रम वीतरागता के पोषक ही हों। तदर्थ शुद्धात्मा के स्वरूप के प्रतिपादक प्रवचनों का समायोजन अधिक से अधिक किया जाना चाहिए। अन्य कार्यक्रमों में भी वीतरागता की पोषक चर्चाओं का समायोजन सर्वाधिक होना चाहिए। - पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, पृष्ठ-७२-७३ प्रवचनसार गाथा १७०-७१ 'आत्मा न तो पुद्गल कर्मों का कर्ता ही है और न उन्हें कहीं से लाता ही है' - विगत गाथाओं में यह सिद्ध करने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह समझाते हैं कि औदारिक आदि शरीर पौद्गलिक हैं और वे जीव के साथ स्वयं बद्ध होते हैं। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ते ते कम्मत्तगदा पोग्गलकाया पुणो वि जीवस्स । संजायंते देहा देहंतरसंकमं पप्पा ।। १७० ।। ओरालिओ य देहो देहो वेउव्विओ य तेजसिओ । आहारय कम्मइओ पोग्गलदव्वप्पगा सव्वे ।। १७१ ।। ( हरिगीत ) कर्मत्वगत जड़पिण्ड पुद्गल देह से देहान्तर । को प्राप्त करके देह बनते पुन- पुनः वे जीव की ।। १७० ।। यह देह औदारिक तथा हो वैक्रियक या कार्मण । तेजस अहारक पाँच जो वे सभी पुद्गलद्रव्यमय ।। १७१ ।। कर्मरूप परिणत वे-वे पुद्गलपिण्ड देहान्तररूप परिवर्तन को प्राप्त करके पुन: पुन: शरीर होते हैं। औदारिक शरीर, वैक्रियिक शरीर, आहारक शरीर, तेजस शरीर और कार्मण शरीर - ये सभी पुद्गलद्रव्यात्मक हैं। इन गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में संक्षेप में इसप्रकार समझाते हैं - "जिस जीव के परिणामों को निमित्तमात्र करके जो-जो पुद्गलकाय (पुद्गल - पिण्ड) स्वयमेव कर्मरूप परिणमित होते हैं; अनादि संततिरूप प्रवर्तमान देहान्तर (भवान्तर) रूप परिवर्तन का आश्रय लेकर वे वे पुद्गलकाय स्वयमेव शरीर बनते हैं। इससे निश्चित होता है कि कर्मरूप परिणत पुद्गलद्रव्यात्मक शरीर का कर्ता आत्मा नहीं है।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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