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________________ प्रवचनसार अनुशीलन औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर पुद्गल - द्रव्यात्मक हैं। इससे निश्चित होता है कि शरीर आत्मा नहीं है।' आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में उक्त गाथाओं का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं, पर निष्कर्ष के रूप में इससे क्या कहा गया ऐसा प्रश्न उठाकर उसके उत्तर में लिखते हैं कि औदारिक शरीर नामक नामकर्म रहित परमात्मा को प्राप्त न करनेवाले अज्ञानी जीवों के द्वारा उपार्जित औदारिक शरीर नामकर्म उन्हें भवान्तर में प्राप्त होकर उदय में आते हैं; उनके उदय से नोकर्म पुद्गल औदारिकादि शरीर के आकार में स्वयं ही परिणमित होते हैं। यही कारण है कि जीव औदारिक शरीरों का कर्ता नहीं होता । कविवर वृन्दावनदासजी इन गाथाओं का भाव २ छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - ३०६ ( मनहरण कवित्त ) जे जे दर्वकर्म परिनये रहे पुग्गल के, कारमानवर्गना सुशक्ति गुप्त धरिके । तेई फेर जीव के शरीराकार होहि सब, देहान्तर जोग पाये शक्त व्यक्त करिके ।। जैसे बटबीज में सुभाव शक्ति वृच्छ की सो, वटाकार होत वही शक्ति को उछरिके । ऐसे दर्वकर्म बीजरूप लखो वृन्दावन, ताही को सुफल देह जानों मर्म हरिके ।। ५४ ।। औदारिक देह जो विराजै नरतीरक के, नानाभाँति तास के अकार की है रचना । तथा वैक्रीयक शरीर देव नारकी के, जाजोग ताहू के अकार की है रचना ।। तेजस शरीर जो शुभाशुभ विभेद औ अहारक तथैव कारमान की विरचना । ये तो सर्व पुग्गल दरव के बने हैं पिंड, यातैं चिदानंद भिन्न ताहीसों परचना ।। ५५ ।। गाथा - १७०-१७१ ३०७ गुप्त शक्ति की धारक पौद्गलिक कार्मण वर्गणायें जिन-जिन द्रव्यकर्मों रूप परिणमित हुई हैं; उनके उदय में आने पर आहारादि वर्गणायें औदारिकादि शरीररूप परिणमित होकर भवान्तर में भी देहादिरूप परिणमित हो जाती है। जिसप्रकार वटवृक्ष होने की शक्ति वटबीज में विद्यमान रहती है और वह समय पर उल्लसित होकर वटवृक्षरूप हो जाती है; उसीप्रकार द्रव्यकर्म को बीजरूप जानना चाहिए और उसके सुफल के रूप में इस देह को जानना चाहिए। तात्पर्य यह है कि नोकर्मरूप देह देह नामक नामकर्म के उदय का परिणाम है। जिसकी रचना अनेक प्रकार की होती है ऐसा औदारिक शरीर मनुष्य और तिर्यंच के होता है । यथायोग्य है रचना जिसकी - ऐसा वैक्रियिक शरीर देव और नारकियों को होता है। शुभ और अशुभ के भेद से तैजस शरीर दो प्रकार का होता है। आहारक और कार्मण शरीर की भी रचना विशेषप्रकार से होती है। उक्त सभी शरीर तो पुद्गल के पिण्ड हैं और भगवान आत्मा की संरचना इनसे पूर्णत: भिन्न ही है। इन गाथाओं के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँ मुख्यता से शरीर की बात की है, उसमें मन, वाणी के परमाणु भी साथ ले लेना चाहिए। अतः जो परमाणु मनरूप अथवा वाणीरूप परिणमते हैं, उसमें भी कर्म निमित्तरूप होता है।" यहाँ तो शरीर, मन, वाणी आदि नोकर्म के कारणरूप से कर्म पुद्गल ही लिए हैं, पर आत्मा को निमित्त रूप से भी नहीं कहा। अतः आत्मा उनका कर्त्ता नहीं है। जैसे दिव्यध्वनि अपने कारण से परिणमती है; वैसे ही संसारी जीव की भाषा के पुद्गल भी अपने स्वयं के परिणमन के स्वकाल में वाणीरूप होकर निकलते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- १९१ २. वही, पृष्ठ १९९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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