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________________ ३०२ गाथा-१६८-१६९ ३०३ प्रवचनसार अनुशीलन के असंख्य प्रदेशों में प्रदेश-प्रदेश में ठसा-ठस भरी हुई हैं। आठ कर्मरूप परिणमनस्वभाव को धारण करनेवाली वे वर्गणायें आत्मा के विकारी उपयोग का संयोग पाकर कर्मपिंड होकर आत्मा के साथ बंधी रहती हैं। (दोहा) तातें पुदगल करम को, आतम करता नाहिं। भूल भावतें जीव कै, करम धूलि लपटाहिं ।।५२।। इसलिए पौद्गलिक कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है। आत्मा की भूलरूप भावों का निमित्त पाकर आत्मा से कर्मरूप धूल लिपट जाती है। (मनहरण कवित्त) कर्मरूप होन की सुभाव शक्ति जामैं वसै, ऐसे जे जगत माहिं पुग्गल के खंध हैं। तेई जब जगतनिवासी जग जीवनि के, परिनाम अशुद्ध को पावैं सनबंध हैं।। तबै ताईं काल कर्मरूप परिन सोई, ऐसो वृन्द अनादि तैं चलो आवै धंध है। ते वै कर्मपिंड आतमा ने प्रनवाये नाहिं, पुग्गल के खंध ही सोंपुग्गल को बंध है ।।५३।। जिनमें कर्मरूप परिणमन की स्वभाविक शक्ति रहती है; जगत में ऐसे जो पुद्गल के स्कंध हैं; वे ही संसारी जीवों के अशुद्ध परिणामों का निमित्त पाकर उसीसमय कर्मरूप परिणमित होकर जीवों से बंध जाते हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि इसप्रकार का धंधा अनादिकाल से चला आरहा है। वस्तुत: बात यह है कि उन कर्मपिण्डों को आत्मा ने परिणमित नहीं किया; इसलिए यह नक्की है कि पुद्गल का बंध पुद्गल के साथ ही है; आत्मा के साथ नहीं। वस्तुत: बात यह है कि बंधप्रक्रिया संबंधी यह प्रकरण करणानुयोग संबंधी है। अत: इसमें सभी विद्वानों का वर्णन एक जैसा ही होता है। अत: सबके उद्धरण देने में पुनरावृत्ति बहुत होती है। इस बात को ध्यान में रखकर ही यहाँ देवीदासजी के उद्धरणों को नहीं दिया जा रहा है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “कर्म होने योग्य परमाणु अतिसूक्ष्म नहीं होते; क्योंकि कर्म अनंत परमाणुओं का जत्था है। एक परमाणु से लेकर असंख्य परमाणु तक कर्मरूप होने लायक नहीं हैं। अनंत परमाणु मिलकर कर्मरूप परिणमते हैं। इसीप्रकार से अतिस्थूलरूप परमाणु भी कर्मरूप नहीं परिणमते । जैसे कर्म के परमाणु अति सूक्ष्म नहीं होते, वैसे ही अति स्थूल भी नहीं होते। कर्मरूप परिणमना अथवा नहीं परिणमना तो परमाणुओं की योग्यता है। यह परमाणु की समय-समय की योग्यता की बात है।' जिसप्रकार मकान बनाने के लिए गाँव के बाहर से लकड़ी लानी पड़ती है; उसीप्रकार आत्मा राग-द्वेष करे तब कर्म के लकड़े बाहर से लाने पड़ते हों - ऐसा नहीं है। जीव जितनी मात्रा में रागद्वेष करे, उतनी मात्रा में कर्म के लायक, उतने परमाणु अपने कारण से परिणमते हैं। आत्मा उन परमाणुओं को बाहर से नहीं लाता। कर्मरूप परिणमने की योग्यतावाले पुद्गल स्कंध जीव के साथ एक क्षेत्रावगाही होते हैं। वे जीव के परिणामों का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणमते हैं। उन स्कंधों का ज्ञानावरणादिप्रकृतिरूप परिणमना अंतरंग साधन है और जीव के परिणाम मात्र बाह्य साधन हैं। दोनों का स्वतंत्र परिणमन एक ही समय में है, कालभेद नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि आत्मा पुद्गलपिण्डों को कर्मरूप नहीं परिणमाता। ___ एक क्षेत्र में रहने वाले जीव के विकारी परिणाम को निमित्त मात्र बनाकर कर्म के योग्य पुद्गल अपनी अंतरंग शक्ति से ज्ञानावरणादि कर्मरूप से परिणम जाते हैं। जीव उनको परिणमाता नहीं है।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१८६ २. वही, पृष्ठ-१८७ ३. वही, पृष्ठ-१८९
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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