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________________ २७६ प्रवचनसार अनुशीलन और मन के स्वरूप का आधारभूत अचेतन द्रव्य नहीं हूँ; क्योंकि मेरे बिना ही वे अपने स्वरूप को धारण करते हैं। इसलिए मैं इन शरीरादि का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ होता हूँ । इसीप्रकार मैं शरीर, वाणी तथा मन का कारणरूप अचेतन द्रव्य नहीं हूँ; क्योंकि मेरे कारण हुए बिना ही वे कारणवान हैं; इसलिए मैं उनके कारणपने का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ होता हूँ । मैं स्वतंत्ररूप से शरीर, वाणी और मन का कर्ता अचेतन द्रव्य नहीं हूँ; क्योंकि मेरे कर्ता हुए बिना भी वे किये जाते हैं। इसलिए उनके कर्तृत्व का पक्षपात छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । स्वतंत्ररूप से शरीर, वाणी व मन का कारकरूप अचेतन द्रव्य का मैं प्रयोजक (करानेवाला) नहीं हूँ; क्योंकि मेरे बिना भी वे किये जाते हैं। इसलिए मैं उनमें कर्तापने के प्रयोजकपने (करानेवाला पने) का पक्षपात छोड़कर अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । स्वतंत्ररूप से शरीर, वाणी और मन का कारक जो अचेतन द्रव्य है; मैं उनका अनुमोदक नहीं हूँ; क्योंकि मेरे अनुमोदक हुए बिना ही वे किये जाते हैं। इसलिए उनके कर्ता के अनुमोदनपने का पक्षपात छोड़कर मैं अत्यन्त मध्यस्थ हूँ । पुद्गलद्रव्यात्मक होने से शरीर, वाणी और मन परद्रव्य हैं। उनमें पुद्गलपना है; क्योंकि वे पुद्गलद्रव्य के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व में निश्चित हैं । शरीररूप पुद्गलद्रव्य अनेक परमाणुओं का एक पिंडपर्यायरूप परिणाम है; क्योंकि अनेक परमाणुद्रव्यों के स्वलक्षणभूत स्वरूपास्तित्व अनेक ( भिन्न-भिन्न) होकर भी कथंचित् एकत्वरूप अवभासित होते हैं। " आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं। गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी १ मनहरण और २ दोहे - इसप्रकार कुल मिलाकर ३ छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - गाथा - १६०-१६१ ( मनहरण कवित्त ) मैं जो हों शुद्ध चिनमूरत दरव सो, त्रिकाल में त्रिजोगरूप भयो नाहिं कबही । तन मन वैन ये प्रगट पुद्गल यातें, मैं तो याको कारन हू बन्यौ नाहिं तब ही ।। तथा करतार और करावनहूहार नाहिं, करता को अनुमोदक हूँ नाहिं जब ही । ये अनादि पुग्गलकरम ही तैं होते आये, २७७ मैं ऐसी वृन्द जानी जिनवाणी सुनी अब ही ।। ३० ।। शुद्ध चैतन्यमूर्ति द्रव्य हूँ और मैं त्रिकाल में कभी भी मन-वचनकायरूप - त्रियोगरूप नहीं हुआ हूँ; क्योंकि ये मन-वचन-काय तो स्पष्टरूप से पुद्गल हैं; इसलिए मैं इनका कभी कारण भी नहीं बना, कर्ता भी नहीं बना, करानेवाला भी नहीं बना और अनुमोदक भी नहीं बना। ये सब तो अनादि से पौद्गलिक कर्मोदय से ही होते आये हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि मैंने जिनवाणी सुनकर अब यह सब जान लिया है। दोहा ) तन मन वचन त्रिजोग हैं, पुद्गलदरवसरूप । ऐसे दयानिधान वर, दरसाई जिनभूप ।। ३१ ।। सो वह पुद्गल दरव के, अविभागी परमानु । तासु खंध को पिंड है, यों निहचै उर आनु ।। ३२ ।। मन, वचन और काय - ये त्रियोग पुद्गल द्रव्यरूप हैं। दयानिधान भगवान ने यह बात बताई है। ये देहादिक अविभागीरूप पुद्गल परमाणु द्रव्य के स्कंध हैं, पिण्ड हैं - यह बात निश्चयनय की है - ऐसा हृदय में धारण करो । पण्डित देवीदासजी इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - (छप्पय ) तनमन वचन स्वरूप मैं न वे रूप न मेरो । 'उपादान कारन सु मैं न करता तिनि केरौ ।।
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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