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प्रवचनसार अनुशीलन - ऐसा कहा है। यह ज्ञेय अधिकार है और पंचपरमेष्ठी परज्ञेय हैं, स्वज्ञेय नहीं; इसकारण उनकी तरफ से लक्ष्य छूटकर आत्मा में शुद्धोपयोग प्रगट होने से अशुद्ध उपयोग उत्पन्न ही नहीं होता तथा परद्रव्य का संयोग भी नहीं रहता । इसलिए आचार्य भगवान कहते हैं कि मैं शुद्धोपयोग में रहता हूँ और यह अशुद्ध उपयोग के विनाश का अभ्यास है।”
१५६वीं गाथा की टीका में कहा था कि परद्रव्य के संयोग का कारण अशुद्धोपयोग है और वह अशुद्धोपयोग विशुद्धि और संक्लेशरूप उपराग के कारण शुभ और अशुभरूप द्विविधता को प्राप्त होता हुआ पुण्य-पाप के बंध का कारण होता है। पुण्य से अनुकूल और पाप से प्रतिकूल संयोग मिलते हैं।
अब यहाँ आचार्यदेव कह रहे हैं कि शुद्धोपयोग में रहना ही परद्रव्य के संयोग के कारणरूप अशुद्धोपयोग के विनाश का कारण है। अतः अब मैं समस्त परद्रव्यों से मध्यस्थ होता हूँ। ___इसप्रकार शुभाशुभभावरूप अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर शुद्धोपयोगी होता हुआ पुण्य-पाप से मुक्त होकर मैं निजात्मा में निश्चल होता हूँ; क्योंकि अशुद्धोपयोग के विनाश का एकमात्र यही उपाय है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१५५
प्रवचनसार गाथा १६०-१६१ विगत गाथा में अशुद्धोपयोग के विनाश के अभ्यास की बात करके अब इन गाथाओं में शरीरादि परद्रव्यों के प्रति माध्यस्थ भाव दिखाकर मन-वचन-काय परद्रव्य हैं - यह समझाते हैं। गाथाये मूलत: इसप्रकार हैंणाहं देहो ण मणो ण चेव वाणी ण कारणं तेसिं । कत्ता ण ण कारयिदा अणुमंता व कत्तीणं ।।१६०।। देहो य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पग त्ति णिहिट्ठा । पोग्गलदव्वं हि पुणो पिंडो परमाणुदव्वाणं ।।१६१।।
(हरिगीत) देह मन वाणी न उनका करण या कर्ता नहीं। ना कराऊँ मैं कभी भी अनुमोदना भी ना करूँ ।।१६०।। देह मन वच सभी पुद्गल द्रव्यमय जिनवर कहे।
ये सभी जड़ स्कन्ध तो परमाणुओं के पिण्ड हैं ।।१६१।। मैं न देह हूँ, न मन हूँ और न वाणी ही हूँ। मैं इन मन-वचन-काय का कारण नहीं हूँ, कर्ता नहीं हूँ, करानेवाला भी नहीं हूँ और करनेवालों की अनुमोदना करनेवाला भी नहीं हूँ।
देह, मन और वाणी पुद्गलद्रव्यात्मक हैं और वे पुद्गल द्रव्य परमाणुओं के पिण्ड हैं - ऐसा वीतरागदेव ने कहा है।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"मैं शरीर, वाणी और मन को परद्रव्य के रूप में समझता हूँ; इसलिए मुझे उनके प्रति कुछ भी पक्षपात नहीं है। मैं उन सबके प्रति अत्यन्त मध्यस्थ हूँ।
अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं - वस्तुत: मैं शरीर, वाणी
जीव और देह की पारमार्थिक भिन्नता समझने के लिए पहले उनकी व्यावहारिक एकता की वास्तविक स्थिति जानना आवश्यक है, अन्यथा व्यावहारिक एकता की तात्कालिक उपयोगिता के साथ-साथ स्वभाविक भिन्नता का भी भलीभाँति परिचय प्राप्त नहीं होगा, पारमार्थिक प्रयोजन की भी सिद्धि नहीं होगी; अत: देह और आत्मा की पारमार्थिक भिन्नता के साथ-साथ व्यावहारिक एकता का ज्ञान भी आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है; पर ध्यान रहे इसकी पारमार्थिक भिन्नता तो भिन्नता जानने के लिए है ही, व्यावहारिक एकता का स्वरूप जानना भी पारमार्थिक भिन्नता जानने के लिए ही है।
- बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-७८