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गाथा-१५९
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प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार मध्यस्थ होता हुआ मैं परद्रव्यानुसार परिणति के अधीन न होने से शुभाशुभरूप अशुद्धोपयोग से मुक्त होकर, मात्र स्वद्रव्यानुसार परिणति को ग्रहण करने से शुद्धोपयोगी होता हुआ उपयोगरूप निजस्वरूप से आत्मा में ही सदा निश्चल रूप से उपयुक्त रहता हूँ।
यह मेरा परद्रव्य के संयोग के कारण के विनाश का अभ्यास है।" तात्पर्यवृत्ति में पूर्णतः तत्त्वप्रदीपिका का अनुकरण किया गया है।
वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मत्तगयन्द और ४ दोहे - इसप्रकार पाँच छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मत्तगयन्द) मैं निज ज्ञानसरूप चिदातम, ताहि सुध्यावत हौं भ्रम टारी । भाव शुभाशुभ बंध के कारन, तातै तिन्हैं तजि दीनों विचारी ।। होय मधस्थ विराजत हौं, परदर्व विर्षे ममता परिहारी। सोसुख क्योंमुख सों बरनौं, जोचखैसोलखैयह बात हमारी ।।२५।।
मैंने अपने ज्ञानस्वरूप चैतन्य आत्मा का ध्यान करके सभी प्रकार के भ्रमों को टालकर बंध के कारणरूप शुभाशुभ भावों को छोड़ने का विचार कर लिया है और मध्यस्थ भाव धारण करके परद्रव्य के प्रति ममत्व भाव को छोड़ दिया है। ऐसा करने से अर्थात् शुद्धोपयोग से जिस सुख की प्राप्ति होती है; वह सुख मुख से कैसे कहा जा सकता है ? हम तो यह कहते हैं कि उस सुख को जो व्यक्ति चखता है; वही लखता है अर्थात् वही जानता है।
(दोहा) तातें यह उपदेश अब, सुनो भविक बुधिवान । उद्दिम करि जिनवचन सुनि, ल्यो निजरूप पिछान ।।२६।। ताही को अनुभव करो, तजि प्रमाद उनमाद । देखो तो तिहि अनुभवत, कैसो उपजत स्वाद ।।२७।। जाके स्वादत ही तुम्हें, मिलै अतुल सुख पर्म । पुनि शिवपुर में जाहुगे, परिहरि अरि वसुकर्म ।।२८।।
यही शुद्ध उपयोग है, जीवन-मोच्छसरूप ।
यही मोखमग धर्म यहि, यही शुद्धचिद्रूप ।।२९।। इसलिए हे बुद्धिमान भव्यजीवो ! मेरे इस उपदेश को ध्यान से सुनो। पुरुषार्थ कर जिन वचनों को सुनकर निजस्वरूप को पहिचान लो।
प्रमाद और उन्माद छोड़कर उसका ही अनुभव करो । जरा देखो तो सही कि उसका अनुभव करने पर किसप्रकार का स्वाद आता है ?
उसका स्वाद लेते ही तुम्हें अतुलनीय परमसुख मिलेगा और अन्त में आठों कर्मों का परिहार करके मुक्तिपुरी में जावोगे।
यह शुद्धोपयोग जीवों को मोक्षस्वरूप ही है। यही मोक्षमार्ग है, यही धर्म है और यही शुद्धचैतन्यस्वरूप परमात्मा है। पण्डितदेवीदासजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
(कुण्डलिया) स्वपर विवेकी हौं सु मैं ग्यान स्वरूप सदीव।
सुद्धभाव करि अनुभवौं सुद्ध स्वरूप सु जीव ।। सुद्ध स्वरूप सु जीव सुभासुभ भाव न मैरो। अपनौं रसु दै करि सु आपु खिरि जात सवैरौ ।। ताथै मैं मध्यस्तर हौहि थिरता सुन देखी।
करनहार निज ध्यान को सु मैं स्वपर विवेकी ।।११४।। स्वपरविवेकी मैं सदा ज्ञानस्वरूप हूँ और शुद्धभावों से अपने शुद्धस्वरूप का अनुभव करता हूँ। मैं शुद्धस्वरूपी जीव हूँ, शुभाशुभभाव मेरे नहीं हैं, वे तो अपना रस देकर समय पाकर अपने आप खिर जाते हैं। मैंने इनमें कभी स्थिरता नहीं पाई है; इसलिए इनसे मध्यस्थ रहता हूँ। स्वपरविवेकी मैं तो अपने आत्मा का अनुभव करनेवाला हूँ।
स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “आचार्य भगवान को इस गाथा के लिखते समय तो शुभ उपयोग वर्तता है; किन्तु दृष्टि में शुभ का निषेध वर्तता है। शुद्ध स्वभाव का जोर है; इसलिए शुभ को गौण करके ज्ञानस्वरूप आत्मा का अनुभव करता हूँ