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________________ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-१६०-१६१ २७९ मैं न करावनहार पुनि सु जोगनि कौं तीनों। मोविनुतन मन वचन भाव पुद्गल करिकीनौं।। तिनि जोगनि करिवेकी सकति पुद्गल पिंड विर्षे कही। ताथै मध्यस्तर हौं सु मैं दरव अचेतन सौं सही ।।११५।। न तो मैं मन-वचन-कायरूप हूँ और न वे मुझरूप हैं। मैं उनका उपादान कारण नहीं हूँ, कर्ता भी नहीं हूँ, इसीप्रकार तीन योगों का करानेवाला भी नहीं हूँ। ये मन-वचन-काय मेरे बिना पुद्गल के किये हुए हैं; क्योंकि उन्हें करने की शक्ति पुद्गलपिण्ड में कही गई है। इसलिए मैं अचेतन पदार्थों से मध्यस्थ रहता हूँ। (दोहा) मैं न नैन तन कान पुनि घ्रान वैन मनु हैं न । ग्यान प्रान गन जान पन लीन तीन गुन अँन ।।११६।। मैं आँख, कान, घ्राण, तन और मनरूप नहीं हूँ। मैं तो ज्ञानप्राण का धारक ज्ञायक आत्मा हूँ और दर्शन-ज्ञान-चारित्र गुणों में लीनरहनेवाला हूँ। (चौपाई) तन मन वचन जोग ये तीन्हों, जड़ पर दरवस्वरूपसुचीन्हौ । पुद्गल परमानू अविभागी, तिनके लखौ पिंड बड़भागी।।११७।। मन-वचन-काय - ये तीनों योग जड़द्रव्य हैं, परद्रव्य हैं। ये अविभागी पुद्गल परमाणुओं के पिंड हैं, मैंने इन्हें इस रूप में ही पहिचाना अधिकता में उसको गौण किया है। जब वाणी निकलती है तो बहुत से जीवों को लाभ का कारण होती है, ऐसी अनुमोदना मैं नहीं करता । वाणी इत्यादि के प्रति मुझे पक्षपात नहीं। आत्मा है - इसकारण शरीर, मन, वाणी की क्रिया हो रही है - ऐसा मैं नहीं मानता। शरीर, मन, वाणी परद्रव्य हैं, वे अपने कारण परिणमन कर रहे हैं। मैं उनके बंध के प्रति अत्यंत मध्यस्थ हूँ। ज्ञानी जीव विचार करता है कि शरीर, मन व वाणी तो परज्ञेय हैं; वे मेरे आधार बिना स्वतंत्ररूप से परिणमन कर रहे हैं। इसकारण उनके आधार का पक्षपात छोड़कर मैं अत्यंत ज्ञाता-दृष्टा रहता हूँ। ___ अज्ञानी जड़ आदि का कर्ता और कारण स्वयं को भले ही माने; किन्तु उन जड़ शरीर, मन व वाणी का आधार, कारण, कर्ता, कारयिता एवं अनुमोदनकर्ता मैं नहीं हूँ; क्योंकि आत्मा ज्ञानस्वरूप है - ऐसा ज्ञान करना और परज्ञेय स्वतंत्र हैं - ऐसा जानना ही सम्यग्ज्ञान और धर्म है। ___ शरीर, मन, वाणी के परमाणुओं के स्वलक्षणभूत स्वरूप-अस्तित्व जुदे-जुदे हैं; फिर भी रूखापने और चिकनेपने के कारण बंधरूप होने से वे एकपने भासते हैं; किन्तु आत्मा के कारण तो उनकी स्कंधरूप अवस्था होती ही नहीं है। जब एक परमाणु की अवस्था दूसरे पुद्गल परमाणु के कारण नहीं होती; तो फिर आत्मा के कारण शरीर इत्यादि की अवस्था होती है - ऐसा मानना अज्ञान है। ___ तात्पर्य यह है कि रूखेपन और चीकनेपन के कारण अनेक परमाणु साथ होकर व्यवहार से एकपने भासते हैं; किन्तु आत्मा के कारण व्यवहार से भी वे साथ नहीं होते।" उक्त गाथाओं और उनकी टीका का भाव यह है कि आत्मा इन गाथाओं के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - ___ “धर्मी जीव शरीर, मन व वाणी की अवस्था का ज्ञाता-दृष्टा होता है। आचार्य भगवान कहते हैं कि मैं शरीर, वाणी और मन को परपदार्थ समझता हूँ। लिखते समय मन की तरफ का जुड़ाव होने पर स्वभाव की १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-१५७ २. वही, पृष्ठ-१६३ ३. वही, पृष्ठ-१६५
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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