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________________ २४५ २४४ प्रवचनसार अनुशीलन प्राणसामान्य से जीता है, जियेगा और पहले जीता था; वह जीव है। यद्यपि अनादि सन्तानरूप प्रवर्तमान होने से संसारदशा में त्रिकाल स्थायी होने से प्राणसामान्य जीव के जीवत्व का हेतु है; तथापि वह प्राणसामान्य जीव का स्वभाव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गल द्रव्य से निष्पन्न है।" यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; तथापि उनकी टीकाओं में उक्त दोनों गाथाओं के बीच में एक गाथा और आती है, जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है। वह गाथा इसप्रकार है - पंच वि इंदियपाणा मणवचिकाया य तिण्णि बलप्राणा। आणप्पाणप्पाणो आउगपाणेण होंति दस प्राणा ।।१२।। (हरिगीत ) पाँच इन्द्रिय प्राण मन-वच-काय त्रय बल प्राण हैं। आयु श्वासोच्छ्वास जिनवर कहे ये दश प्राण हैं ।।१२।। पाँच इन्द्रिय प्राण; मन, वचन और काय - ये तीन बल प्राण; श्वासोच्छ्वास और आयुरूप प्राण से प्राण दश होते हैं। उक्त गाथा की टीका में भी गाथा के शब्दों को दुहरा दिया है; पर अन्त में यह लिख दिया है कि निश्चय से ये दश प्राण ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा से भिन्न हैं। इस गाथा में जो प्राणों के भेद-प्रभेद गिनाये गये हैं; वह तत्त्वप्रदीपिका टीका में विगत गाथा की टीका में दे दिये गये हैं। उक्त गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी ने तीन छन्दों में प्रस्तुत कर गाथा और टीका में समागत विषयवस्तु को मात्र दुहरा दिया है। इसीप्रकार पण्डित देवीदासजी ने भी दो छन्दों में उक्त विषयवस्तु को बड़ी सरलता से प्रस्तुत कर दिया है। गाथा-१४६-१४७ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "इन्द्रिय प्राण, बल प्राण, आयु प्राण और श्वासोच्छ्वास प्राण; ये चार जीवों के प्राण हैं। संक्षेप से चार प्राण और विस्तार से पाँच इन्द्रियाँ, मन, वचन, काया, श्वास और आयु - ये दश जड़ प्राण हैं। संसारदशा में अनादिकाल से अज्ञानी जीव शरीर, इन्द्रियाँ आदि जड़ प्राणों को अपना मानकर, उनमें से सुख प्राप्त करना चाहता है। - इसकारण उसको संसार चालू रहता है; और विकार के फल में जड़कर्म बँधते हैं तथा जड़कर्म के फल में नोकर्मरूपी दशप्राणों का जीव को एकक्षेत्रावगाह संबंध होता है। कोई अज्ञानी जीव ऐसा मानता है कि संसार में दशप्राणों का संबंध व्यवहार से भी नहीं होता, तो यह उसकी भूल है; परन्तु व्यवहार से दश प्राण होने पर भी वे जीव का वास्तविक स्वरूप नहीं है। इसप्रकार यहाँ दशप्राणों की दृष्टि छुड़ाने और चैतन्यप्राण की दृष्टि कराने के लिए व्यवहारप्राण का ज्ञान कराते हैं।' इन्द्रियाँ सबल या निर्बल रहना आत्मा के अधिकार की बात नहीं है तथा सबल इन्द्रियाँ धर्म का या निर्बल इन्द्रियाँ अधर्म का कारण भी नहीं है। आत्मा इन्द्रियों से रहित ज्ञाता-दृष्टा साक्षीस्वरूप है - वह एक ही धर्म का कारण है। इसप्रकार इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास - ये चार प्राण जीव के व्यवहार से संसारदशा में होते हैं। इनके भेद १० होते हैं। अज्ञानी जीव अन्न को ग्यारहवाँ और धन को बारहवाँ प्राण कहता है - यह तो स्थूल अज्ञान है। अरे, भाई! ये प्राण नहीं हैं; ये तो प्रत्यक्ष भिन्न पुद्गल पदार्थ हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-९४-९५ २. वही, पृष्ठ-९५
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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