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________________ २४६ प्रवचनसार अनुशीलन व्यवहार से संसारदशा में जीव को एकक्षेत्ररूप दश प्राण होते हैं; परन्तु वे जड़ हैं। उनसे आत्मा को लाभ या हानि नहीं है - इसप्रकार उनसे दृष्टि हटाकर, जो अनादि-अनन्त चैतन्यप्राण हैं, उनका लक्ष करना ही इस गाथा का सार है।" इसप्रकार इन गाथाओं में मात्र यही कहा गया है कि प्राण चार प्रकार के होते हैं; जो कुल मिलाकर दश हो जाते हैं। इन्द्रिय प्राण के पाँच भेद, बल प्राण के तीन भेद और आयु व श्वासोच्छ्वास प्राण एक-एक - इसतरह दश प्राण हो गये। इन प्राणों से जो जीता है, वह व्यवहार जीव है; किन्तु ये प्राण तो पुद्गल के हैं, जड़ हैं; अत: ये भगवान आत्मा से भिन्न ही हैं। यही कारण है कि ज्ञान-दर्शन चेतना को धारण करनेवाले जीवों को ही निश्चय जीव कहा जाता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-९८ प्रवचनसार गाथा १४८-१४९ विगत गाथाओं में यह कहा था कि संसारी जीवों के चार प्राण होते हैं, उनसे वह जीता है, जीता था और जियेगा; फिर भी ये प्राण तो पौद्गलिक ही हैं। अब इन गाथाओं में प्राणों को पौद्गलिक सिद्ध करते हुए यह बताते हैं कि वे पौद्गलिक प्राण पौद्गलिक कर्मों के बंध के हेतु हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - जीवो पाणणिबद्धो बद्धो मोहादिएहिं कम्मेहिं । उवभुंज कम्मफलं बज्झदि अण्णेहि कम्मेहिं ।।१४८।। पाणाबाधं जीवो मोहपदेसेहिं कुणदि जीवाणं। जदि सो हवदि हि बंधो णाणावरणादि कम्मेहिं ।।१४९।। (हरिगीत ) मोहादि कर्मों से बंधा यह जीव प्राणों को धरे । अर कर्मफल को भोगता अर कर्म का बंधन करे ।।१४८।। मोह एवं द्वेष से जो स्व-पर को बाधा करे। पूर्वोक्त ज्ञानावरण आदि कर्म वह बंधन करे ।।१४९।। मोहादिक कर्मों से बंधा हुआ होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता हुआ कर्मफल को भोगता है और अन्य कर्मों से बंधता है। यदि जीव मोह और द्वेष के द्वारा स्व-पर जीव के प्राणों को बाधा पहुँचाते हैं तो पूर्वकथित ज्ञानावरणादि कर्मों द्वारा बंधते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इन गाथाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "मोहादिक पौद्गलिक कर्मों से बँधा होने से जीव प्राणों से संयुक्त होता है और प्राणों से संयुक्त होने के कारण पौद्गलिक कर्मफल को भोगता हुआ पौद्गलिक कर्मों से बँधता है; इसलिए पौद्गलिक कर्म के कार्य व कारण होने से प्राण पौद्गलिक ही निश्चित होते हैं। अब यह बताते हैं कि प्राण पौद्गलिक कर्म के कारण कैसे हैं ? यद्यपि बारह भावनाओं का चिन्तन ज्ञानी-अज्ञानी सभी के लिए समानरूप से हितकारी है, तथापि इनका सम्यक् स्वरूप न जान पाने के कारण अज्ञानीजन लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक उठाया करते हैं। पहले शरीरादि संयोगों को भला जानकर उनसे अनन्त अनुराग करते थे; पर जब बारह भावनाओं में निरूपित शरीरादि संयोगों की अनित्यता, अशरणता, असारता, अशुचिता आदि दोषों को जान लेते हैं तो उनसे द्वेष करने लगते हैं। बारह भावनाओं के चिन्तन का सच्चा फल तो वीतरागता है, उसकी प्राप्ति उन्हें नहीं हो पाती है। - बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-१८
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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