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________________ २४२ प्रवचनसार अनुशीलन ऐसा जानता है। जगत में रुपयादि पुद्गल हैं - उनको जानने की शक्ति जीव में है; परन्तु वे रुपये जीव के हैं - ऐसा जानने का जीव का स्वभाव नहीं है। यहाँ जीव का जानने का स्वभाव कहा है। जीव निमित्त से, परपदार्थों की उपस्थिति से, मन से, इन्द्रियों से अथवा अपने राग से जानता है - ऐसा नहीं कहा है; परन्तु अपनी अचिंत्य महान ऋद्धि से, स्व-परप्रकाशक शक्ति से जानता है। इसप्रकार निश्चय जीवत्व का हेतु अनंतज्ञान शक्ति को कहा गया है और व्यवहार जीवत्व का हेतु चार प्राणों से संयुक्तपना कहा है। इसप्रकार निश्चयजीवत्व और व्यवहारजीवत्व दोनों स्वज्ञेय हैं। उनका यथार्थज्ञान करना ज्ञान की निर्मलता का कारण है।" उक्त कथन का तात्पर्य यह है कि इस लोक में सभी द्रव्य सप्रदेशी हैं और ज्ञेय हैं; किन्तु जीवद्रव्य ज्ञेय के साथ ज्ञान भी हैं; जानने में आने के साथ जानते भी हैं। यद्यपि सभी जीव निश्चय से ज्ञानस्वभावी ही हैं। तथापि संसार दशा में व्यवहार से अनादि से शरीरादि अर्थात् कम से कम चार प्राणों के संयोग में भी हैं। अतः शरीरादि से भगवान आत्मा जुदा है - यह जानना अत्यन्त आवश्यक है। प्रवचनसार गाथा १४६-१४७ विगत गाथा में कहा गया है कि व्यवहार जीवत्व का हेतु चार प्राण हैं और निश्चय जीव उक्त चार प्राणोंरूप शरीर से भिन्न है। __अब इन गाथाओं में यह बता रहे हैं कि प्राण कितने हैं, कौन-कौन हैं और इन प्राणों से जीव जीता है, फिर भी प्राण पुद्गल से निष्पन्न हैं। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - इंदियपाणो य तधा बलपाणो तह य आउपाणो य । आणप्पाणप्पाणो जीवाणं होंति पाणा ते ॥१४६।। पाणेहिंचदुहिंजीवदिजीविस्सदिजोहि जीविदोपुव्वं। सो जीवो पाणा पुण पोग्गलदव्वेहिं णिव्वत्ता ।।१४७।। (हरिगीत ) इन्द्रिय बल अर आयु श्वासोच्छ्वास ये ही जीव के। हैं प्राण इनसे लोक में सब जीव जीवे भव भ्रमें ।।१४६ ।। जीव जीवे जियेगा एवं अभीतक जिया है। इन चार प्राणों से परन्तु प्राण ये पुद्गलमयी ।।१४७।। इन्द्रिय, बल, आयु और श्वासोच्छ्वास - ये चार जीवों के प्राण हैं। यद्यपि उक्त चार प्राणों से जो जीता है, जियेगा और भूतकाल में जीता था, वह जीव है; तथापि ये प्राण तो पुद्गलद्रव्यों से निष्पन्न हैं। उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - _"स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण - ये पाँच इन्द्रिय प्राण हैं; काय, वचन और मन - ये तीन बल प्राण हैं; भवधारण का निमित्त आयु प्राण है और नीचे और ऊपर जाना जिसका स्वरूप है - ऐसी वायु श्वासोच्छ्वास प्राण है। अब व्युत्पत्ति से प्राणों को जीवत्व का हेतुपना और उनका पौद्गलिकपना बताते हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-९०-९१ २. वही, पृष्ठ-९२ ३. वही, पृष्ठ-९३ पर्यायों की परिवर्तनशीलता वस्तु का पर्यायगत स्वभाव होने से आत्मार्थी के लिए हितकर ही है; क्योंकि यदि पर्यायें परिवर्तनशील नहीं होतीं तो फिर संसारपर्याय का अभाव होकर मोक्षपर्याय प्रकट होने के लिए अवकाश भी नहीं रहता। अनन्तसुखरूप मोक्ष-अवस्था सर्वसंयोगों के अभावरूप ही होती है। यदि संयोग अस्थाई न होकर स्थायी होते तो फिर मोक्ष कैसे होता? अतः संयोगों की विनाशीकता भी आत्मा के हित में ही है। - बारह भावना : एक अनुशीलन, पृष्ठ-२८
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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