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गाथा-१४४
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प्रवचनसार अनुशीलन द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश के बराबर असंख्यप्रदेशवाला एक द्रव्य हो तो भी परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंधित होने पर पर्याय समय की सिद्धि कैसे होगी? __यदि कोई ऐसा कहे कि द्रव्यसमय अर्थात् कालपदार्थ लोकाकाश जितने असंख्य प्रदेशवाला एक द्रव्य हो तो भी परमाणु के द्वारा उसका एक प्रदेश उल्लंधित होने पर पर्यायसमय की सिद्धि हो तो क्या आपत्ति है?
ऐसा मानने पर निम्नांकित दो आपत्तियाँ आती हैं -
(१) प्रथम तो द्रव्य के एकदेश की परिणति को सम्पूर्ण द्रव्य की परिणति मानने का प्रसंग आता है और एकदेश की वृत्ति को सम्पूर्ण द्रव्य की वृत्ति मानने में विरोध है । सम्पूर्ण कालपदार्थ का जो सूक्ष्म वृत्यंश है, वह समय है; परन्तु उसके एकदेश का वृत्यंश समय नहीं है।
(२) दूसरे, तिर्यक् प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयपने का प्रसंग आता है। तात्पर्य यह है कि ऐसा मानने पर कालद्रव्य एक प्रदेश में वर्ते, फिर दूसरे प्रदेश में वर्ते और फिर अन्य प्रदेश में वर्ते - इसप्रकार का प्रसंग आता है, आपत्ति आती है। इसलिए तिर्यक्प्रचय को ऊर्ध्वप्रचयपना न माननेवालों को पहले से ही कालद्रव्य को प्रदेशमात्र निश्चित करना चाहिए, मानना चाहिए।"
यद्यपि इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तत्त्वप्रदीपिका का अनुकरण करते हैं; तथापि विगत गाथाओं के समान उदाहरण यहाँ भी बदल देते हैं। ____टीका के अन्त में वे जो बात लिखते हैं; वह बात मात्र इस गाथा का उपसंहार नहीं है; अपितु सम्पूर्ण द्रव्यविशेषाधिकार का उपसंहार है। तात्पर्य यह है कि निम्नांकित कथन सूत्र तात्पर्य नहीं, शास्त्र तात्पर्य है
"अनंतकाल में जो जीव आत्मोपादान से सिद्धसुख को प्राप्त हुए हैं और भविष्यकाल में जो जीव सिद्धसुख को प्राप्त होंगे; वे सभी काललब्धि के वश से ही हुए हैं; तथापि निज परमात्मा ही उपादेय है - ऐसी रुचिरूप
वीतरागचारित्र का अविनाभावी जो निश्चयसम्यक्त्व है, उसकी ही मुख्यता है; काल की नहीं, जिसकारण वह हेय है। कहा भी है -
किं पलविएण बहुणा जे सिद्धा णरवरा गये काले । सिज्झहहि जे वि भविया तं जाणह सम्ममाहप्पं ।।'
(हरिगीत) मुक्ती गये या जायेंगे माहात्म्य है सम्यक्त्व का।
यह जान लो हे भव्यजन ! इससे अधिक अब कहें क्या ।। अधिक कहने से क्या ? जो श्रेष्ठ पुरुष भूतकाल में सिद्ध हुए हैं और जो भविष्यकाल में सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का ही माहात्म्य जानो।"
इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी ३ मनहरण, १गीता, १ पदावलिप्तकपोल, १ कवित्त और ११ दोहा - इसप्रकार कुल मिलकार १७ छन्दों में गाथा और उसकी टीकाओं का भाव विस्तार से प्रस्तुत करते हैं; जो मूलत: पठनीय है। नमूने के तौर पर कुछ दोहे प्रस्तुत हैं -
(दोहा) जो प्रदेश से रहित है, सो तो भयो अवस्त । ताके ध्रुव उतपाद वय, लोपित होत समस्त ।।१०४।। तातें काल दरव गहो, अनुप्रदेश परमान। तब तामैं तीनों सधैं, निराबाध परधान ।।१०५।। तातें कालानू दरव, ध्रौव गहोगे जब्ब ।
निराबाध एकै समय, तीनों सधिहैं तब्ब ।।१०८।। जो प्रदेश से रहित है, वह तो अवस्तु है। उसके उत्पाद, व्यय और ध्रुव - सब लुप्त हो जाते हैं।
इसलिए कालद्रव्य को एकप्रदेशी स्वीकार करोगे; तब ही उसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य - तीनों बनेंगे।
जब कालाणुद्रव्य को ध्रुवरूप से ग्रहण करोगे तो एक समय में तीनों सध जाते हैं। १. अष्टपाहुड़ : मोक्षपाहुड़, गाथा-८८