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________________ प्रवचनसार अनुशीलन पण्डित देवीदासजी एक छन्द में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत कर देते हैं, जो इसप्रकार है २३४ (छप्पय ) जिहि वस्तु कैं अनेक एक परदेस न लहिये । विष उतपाद व सुध्रुवता किम कहिये ।। उतपति वय धुव माहि दरव अस्तित्व सही है । सो अस्तित्व विना प्रदेस नाहीं सु कही है ।। जातैं अप्रदेसी के कहैं सून्य असत्ता जानियें । लखिकैं इम परदेसी सुइक काल दरव सो मानियै । । ९६ ।। जिस वस्तु के एक या अनेक प्रदेश नहीं हैं, उस वस्तु में उत्पाद, व्यय और ध्रुवता कैसे कही जा सकती है ? उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से तो वस्तु का अस्तित्व है और वह अस्तित्व प्रदेश के बिना नहीं हो सकता । इसलिए अप्रदेशी मानने पर कालद्रव्य सत्ता शून्य हो जायेगा, उसकी असत्ता सिद्ध होगी। उक्त बात को अच्छी तरह समझकर कालद्रव्य को एक प्रदेशी मानना ही उपयुक्त है। इस गाथा का भाव आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “यदि यह माना जाए कि पदार्थ के अनेक प्रदेश अथवा एक प्रदेश भी परमार्थ से नहीं है अर्थात् उसके क्षेत्र नहीं है - तो उस पदार्थ का अस्तित्व ही नहीं रहता, वह शून्य हो जाता है। जहाँ अस्तित्व है, वहाँ प्रदेश होने ही चाहिए। काल में उत्पादव्यय-ध्रुव की एकतारूप अस्तित्व है- यह पूर्व गाथा में सिद्ध किया जा चुका है। इसलिए यह संभव नहीं है कि द्रव्य प्रदेशरहित हो । तात्पर्य यह है कि काल का एक प्रदेश है - यह निश्चित हुआ । प्रश्न – अकेली समय अवस्थारूप परिणति को मानो; वृत्तिमान काला पदार्थ को मानने की क्या आवश्यकता है? १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- ८१ २. वही, पृष्ठ- ८२ गाथा - १४४ २३५ - उत्तर - समयरूप अवस्था ही कालद्रव्य हो ऐसा नहीं बन सकता; क्योंकि पर्याय पर्यायवान के बिना नहीं हो सकती। नई अवस्था का होना, पुरानी अवस्था का विनशना किसी के आधार बिना संभव नहीं है। इसलिए उत्पाद - विनाशरूप वृत्तियाँ, वृत्तिमान - कालाणु पदार्थ के आधार से ही संभव हैं, उसके बिना नहीं हो सकती। अतः काल औपचारिक द्रव्य नहीं, किन्तु निश्चय द्रव्य है । ' काल प्रदेशी है, तो उससे एक द्रव्य का कारणभूत लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेश क्यों नहीं माने जाएँ? अर्थात् कालद्रव्य को धर्मास्तिकायवत् असंख्य प्रदेशी एक द्रव्य क्यों नहीं मानना चाहिए।' उक्त शंका का समाधान इसप्रकार है तुम्हारी यह बात सत्य नहीं है; क्योंकि यदि कालद्रव्य असंख्यातप्रदेशी एक द्रव्य हो तो पर्यायसमय निश्चित नहीं होता। इसलिए काल को असंख्य प्रदेशी मानना योग्य नहीं है। एक परमाणु एक प्रदेशमात्र कालाणु से नजदीक के दूसरे प्रदेशमात्र कालाणु तक मंदगति से जाए तब पर्यायसमय निश्चित होता है। यह काल के माप की बात है । यदि कालद्रव्य लोकाकाशतुल्य असंख्य प्रदेशी होवे तो पर्यायसमय की सिद्धि नहीं होती । धर्मास्तिकाय द्रव्य लोकप्रमाण है और उसकी पर्याय भी लोकप्रमाण है। जबकि काल की पर्याय लोकप्रमाण कभी नहीं है। काल की पर्याय तो एक अंश (प्रदेश) में पूरी होती है, इसलिए उस पर्याय का धारक कालद्रव्य असंख्य प्रदेशी लोकप्रमाण द्रव्य सिद्ध नहीं होता है; अपितु काल की पर्याय एक अंश (प्रदेश) में है, इसलिए पर्यायवान कालद्रव्य भी एक अंश (प्रदेश) में निश्चित होता है। * इसप्रकार काल एक निश्चय द्रव्य है और वह एक प्रदेश मात्र है - यह निश्चित हुआ।" १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ- ८२ ३. वही, पृष्ठ-८६ २. वही, पृष्ठ- ८५ ४. वही, पृष्ठ- ८७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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