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प्रवचनसार गाथा १४४
विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि काल पदार्थ प्रत्येक वृत्यंश में उत्पाद-व्यय - ध्रौव्यवाला है; क्योंकि वह निरन्वय नहीं है, अन्वय से रहित नहीं है, अन्वय से सहित ही है; और अब इस गाथा में यह बताया जा रहा है कि कालपदार्थ अप्रदेशी नहीं, एकप्रदेशी है; क्योंकि प्रदेश के बिना उसका अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होता ।
गाथा मूलतः इसप्रकार है -
जस्स ण संति पदेसा पदेसमेत्तं व तच्चदो णादुं । सुण्णं जाण तमत्थं अत्थंतरभूदमत्थीदो ।। १४४ ।। ( हरिगीत )
जिस अर्थ का इस लोक में ना एक भी परदेश हो ।
वह शून्य ही है जगत में परदेश बिन न अर्थ हो । । १४४ । । जिस पदार्थ का परमार्थ से एक भी प्रदेश न हो; उस पदार्थ को शून्य जानो; क्योंकि वह अस्तित्व से अर्थान्तरभूत है ।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की ऐक्यस्वरूपवृत्तिरूप ही अस्तित्व है। वह वृत्ति अर्थात् अस्तित्व कालद्रव्य में प्रदेश के बिना ही होता है - ऐसा कहना संभव नहीं है; क्योंकि प्रदेश के अभाव में वृत्तिमान् का अभाव होता है। प्रदेश के बिना पदार्थ शून्य ही है; क्योंकि वह पदार्थ अस्तित्व नामक वृत्ति से अर्थान्तरभूत है, अन्य है ।
इस पर यदि कोई कहे कि समयपर्यायरूप वृत्ति ही मानना चाहिए; वृत्तिमान कालाणु पदार्थ की क्या आवश्यकता है ?
उससे कहते हैं कि मात्र वृत्ति (समयरूप परिणति) ही काल नहीं हो सकती; क्योंकि वृत्ति वृत्तिमान के बिना नहीं हो सकती ।
गाथा - १४४
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यदि यह कहा जाय कि वृत्तिमान के बिना ही वृत्ति हो सकती है तो हम पूछते हैं कि अकेली वृत्ति उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य की एकतारूप कैसे हो सकती है ? यदि कोई यह कहे कि अनादि अनंत अनन्तर अनेक अंशों के कारण एकात्मकता होती है; इसलिए पूर्व-पूर्व के अंशों का नाश होता है, उत्तर-उत्तर के अंशों का उत्पाद होता है और एकात्मकतारूप ध्रौव्य रहता है - इसप्रकार अकेली वृत्ति भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य की एकतारूप हो सकती है।
उससे कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है; क्योंकि उस अकेली वृत्ति में तो जिस अंश में नाश है और जिस अंश में उत्पाद है; वे दो अंश एकसाथ प्रवृत्त नहीं होते; इसलिए उत्पाद और व्यय में ऐसा कैसे हो सकता है ?
नष्ट अंश के सर्वथा अस्त होने से और उत्पन्न होनेवाला अंश अपने स्वरूप को प्राप्त न होने से नाश और उत्पाद की एकता में रहनेवाला ध्रौव्य कैसे हो सकता है ? ऐसा होने पर त्रिलक्षणता नष्ट हो जाती है और बौद्धमत सम्मत क्षणभंग उल्लसित हो उठता है, नित्य द्रव्य अस्त हो जाता है और क्षणध्वंशी भाव उत्पन्न होते हैं; इसलिए तत्त्वविप्लव के भय से अवश्य ही वृत्ति का आश्रयभूत कोई वृत्तिमान खोजना आवश्यक है, स्वीकार करना आवश्यक है।
वृत्तिमान द्रव्य सप्रदेशी ही होता है; क्योंकि अप्रदेश के अन्वय तथा व्यतिरेक होना असिद्ध है।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि कालद्रव्य सप्रदेशी है तो फिर लोकाकाश के समान ही कालद्रव्य के भी एकद्रव्यत्व के हेतुभूत असंख्य प्रदेश मान लेने में क्या आपत्ति है ?
इसका समाधान यह है कि ऐसा मानने पर पर्याय समय प्रसिद्ध नहीं होता; इसलिए कालद्रव्य के असंख्य प्रदेश मानना योग्य नहीं है। परमाणु द्वारा मन्दगति से आकाश के एक प्रदेश का उल्लंघन करने के आधार पर कालद्रव्य की समय नामक पर्याय मानी जाती है।