SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ प्रवचनसार अनुशीलन एक प्रदेश में समा गये हैं? और क्या ज्ञेयों को पता है कि हम सब एकसाथ ज्ञान में ज्ञात हो गये हैं? ज्ञानस्वभाव की सामर्थ्य है कि वह समस्त द्रव्यों के सूक्ष्म स्वभाव को जाने । ज्ञेयों को जानने में अरुचि बतानेवाला अपने ज्ञान का नकार (अस्वीकार) करता है। इसलिए ज्ञेयों का स्वभाव जानकर, अपने ज्ञानस्वभाव की महिमा लाना चाहिए।" सबकुछ मिलाकर उक्त गाथा में यह कहा गया है कि अनादि-अनन्त नित्य कालाणु कालद्रव्य हैं और पुद्गल का परमाणु एक कालाणु द्रव्य से दूसरे कालाणु द्रव्य तक मन्द से मन्द गति से जावे और उसमें जो काल लगे, उसे कालांश समय कहते हैं, पर्याय कहते हैं। कालद्रव्य अनुत्पन्न और अविनष्ट है और उसकी समय नामक पर्याय उत्पन्नध्वंशी है। इस गाथा और उसकी टीका में विशेष समझने की बात यह है कि जिसप्रकार एक आकाश प्रदेश में अनेक पुद्गलाणु एकसाथ रहते हैं, फिर भी वे निरंश ही हैं; उसीप्रकार एक समय में चौदह राजू जानेवाले पुद्गलाणु भी निरंश हैं। वे क्षेत्र से निरंश हैं और ये काल से निरंश हैं। . १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-६१ २. वही, पृष्ठ-६२ जरा विचार तो करो ! ये राग-द्वेषभाव हड्डी-खून-मांस आदि से भी अधिक अपवित्र हैं; क्योंकि हड्डी-खून-मांस उपस्थित रहते हैं, फिर भी पूर्ण पवित्रता, केवलज्ञान और अनन्तसुख प्रकट हो जाते हैं, आत्मा अमल हो जाता है; किन्तु यदि रंचमात्र भी राग रहे; चाहे वह मंद से मंदतर एवं मंदतम ही क्यों न हो, कितना भी शुभ क्यों न हो, तो केवलज्ञान व अनन्तसुख प्रगट नहीं हो सकता। आत्मा पहिले वीतरागी होता है फिर सर्वज्ञ । सर्वज्ञ होने के लिए वीतरागी होना जरूरी है; वीतदेह नहीं, वीतहड्डी नहीं, वीतखून भी नहीं। इससे सिद्ध है कि रागभाव हड्डी और खून से भी अधिक अपवित्र है। -धर्म के दशलक्षण, पृष्ठ-६६ प्रवचनसार गाथा १४० विगत गाथा में 'समय' को परिभाषित किया गया है और अब इस गाथा में प्रदेश की परिभाषा बताई जा रही है। गाथा मूलत: इसप्रकार है आगासमणुणिविटुं आगासपदेससण्णया भणिदं । सव्वेसिं च अणूणं सक्कदि तं देदुमवगासं ।।१४०।। (हरिगीत) अणु रहे जितने गगन में वह गगन ही परदेश है। अरे उस परदेश में ही रह सकें परमाणु सब ।।१४०।। एक परमाणु जितने आकाश में रहता है, उतने आकाश को 'आकाश प्रदेश' - इस नाम से कहा गया है और वह समस्त परमाणुओं को अवकाश देने में समर्थ है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "एक परमाणु से व्याप्य आकाश का अंश आकाशप्रदेश है और वह एक आकाशप्रदेश शेष पाँच द्रव्यों के प्रदेशों और परमसूक्ष्मतारूप से परिणमित अनन्त परमाणुओं के स्कंधों को अवकाश देने में समर्थ है। आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। फिर भी उसमें अंशकल्पना होती है; क्योंकियदिऐसानहोतोसर्वपरमाणुओंकोअवकाश देना नहीं बन सकेगा। ऐसा होने पर भी यदि कोई ऐसा कहे कि आकाश के अंश नहीं हैं तो आकाश में दो अंगुलियाँ उठाकर हम पूछते हैं कि इन दो अंगुलियों का क्षेत्र एक है या अनेक ? यदि एक है - ऐसा कहो तो फिर प्रश्न होता है कि आकाश अभिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है; इसलिए दो अंगुलियों का क्षेत्र एक है या भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिए दो अंगुलियों का क्षेत्र एक है। ___यदि आकाश अभिन्न अंशवाला अविभाग एक द्रव्य है; इसलिए दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है - ऐसा कहा जाय तो जो अंश एक अंगुलि का क्षेत्र है, वही अंश दूसरी अंगुली का भी क्षेत्र है; इसलिए दो में से एक अंश
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy