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________________ २१९ २१८ प्रवचनसार अनुशीलन का अभाव हो जायेगा। इसप्रकार एक से अधिक दो आदि अंशों का अभाव होने से आकाश भी परमाणु के समान प्रदेशमात्र सिद्ध होगा। अत: यह तो ठीक नहीं है। अब यदि यह कहा जाय कि आकाश भिन्न अंशोंवाला अविभाग एक द्रव्य है, इसलिए दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है तो यह ठीक ही है; क्योंकि अविभाग एक द्रव्य में अंशकल्पना सिद्ध हो जाती है। यदि ऐसा कहा जाय कि दो अंगुलियों का क्षेत्र अनेक है, एक से अधिक है; तो प्रश्न होता है कि आकाशद्रव्य खण्ड-खण्डरूप, सविभाग अनेक द्रव्य है, इसलिए दो अंगुलियों का क्षेत्र अनेक है या आकाश अविभाग एक द्रव्य होने पर दो अंगुलियों के क्षेत्र अनेक है। आकाश सविभाग अनेक द्रव्य होने से अंगुलियों का क्षेत्र अनेक है - यदि ऐसा माना जाय तो आकाशद्रव्य अनंत हो जावेंगे। पर यह तो ठीक नहीं है; अत: आकाश अविभाग एक द्रव्य होने से दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है - ऐसा माना जाय तो यह ठीक ही है। इसप्रकार अविभाग एक द्रव्य में अंशकल्पना फलित हो गई।" आचार्य जयसेन शेष बातें तो आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं; पर उदाहरण बदल देते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र तो अंगुलियों का उदाहरण देकर बात को समझाते हैं; पर आचार्य जयसेन दो मुनिराजों के उदाहरण के माध्यम से बात स्पष्ट करते हैं। वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को १ मनहरण, १ नाराच और ७ दोहे - इसप्रकार ९ छन्दों में स्पष्ट करते हैं; जो मूलतः पठनीय है। पण्डित देवीदासजी इस गाथा का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - (कवित्त) परमानू जह सुअविभागी तिन्हि करिरह्यौ व्यापि भर जास। अँसें हैं प्रदेस तस जामैं पंच अरथ परदेस निवास ।। पुग्गल खंध परिनये जे पुनि सहज रूप सूछमता पास । सरव दरव तिन्हि कौं जागा के दीवेकौं समर्थ आकास ।।१४।। अनंत अविभागी परमाणुओं से व्याप्त लोकालोक के भीतर असंख्यात प्रदेश हैं और उस लोकाकाश में जीवादि पाँच प्रकार के पदार्थों के प्रदेशों गाथा-१४० का निवास है। सूक्ष्म और स्थूल पौद्गलिक स्कन्ध सहजपने से एक ही क्षेत्र में एक साथ रहते हैं; इसप्रकार आकाश द्रव्य सभी द्रव्यों को अवकाश (स्थान) देने में समर्थ है। स्वामीजी इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं - "जैसे हैं वैसे ज्ञेय को नहीं जाने, विपरीत प्रकार से जाने तो वस्तु स्वरूप बदल नहीं जाता; परन्तु अपने में भ्रान्ति उत्पन्न होती है और उससे दुःखी होता है। ज्ञान का नकार करनेवाला जीव वनस्पतिकायवत् जड़ हो जाएगा। ज्ञेयों को ज्यों का त्यों जाननेवाला ज्ञान यथार्थ कहलाता है। जाननेयोग्य पदार्थ ज्ञान में ज्ञात हुए बिना रहते ही नहीं; इसलिए आत्मा उनको अवश्य जान सकता है। ऐसा सम्यग्ज्ञान होने से सुखशान्ति होती है और वही ज्ञेयों को जानने का फल है। एक मकान दो कमरों वाला है। अब उसमें एक कमरे की जगह, वहीं दूसरी कमरे की जगह है; और भाग पाड़े बिना एक ही मकान कहोगे तो मकान में दो कमरे सिद्ध नहीं होंगे; और एक कमरे का नाश मानने से मकान कमरे रहित मानना पड़ेगा - तो वैसा मकान का स्वरूप नहीं है। इसलिए एक कमरे का क्षेत्र, वहीं दूसरे कमरे का क्षेत्र है - ऐसा तुम्हारा कथन घटित नहीं होता । इसीप्रकार आकाश में एक अंगुली का क्षेत्र वही दूसरी अंगुली का क्षेत्र मानोगे, तो अंशों का अभाव होने से आकाश परमाणु की तरह एक प्रदेशमात्र हुआ; परन्तु ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि पाँचों द्रव्यों को अवगाहन देनेवाला द्रव्य सबसे बड़ा ही होता है। इसलिए यदि वह एकप्रदेशी होवे तो सबको अवगाहन नहीं दे सकता। - इसकारण तुम्हारा तर्क सत्य नहीं है।" ___ इसप्रकार इस गाथा में मूलरूप से यही कहा गया है कि अखण्ड आकाश में भी अंशकल्पना हो सकती है, होती है। आकाश का सबसे छोटा अंश प्रदेश कहलाता है । यद्यपि वह क्षेत्र से एक पुद्गल के परमाणु के बराबर होता है; तथापि उसमें अनन्त परमाणुओं का स्कंध और जीवादि द्रव्य भी समा सकते हैं। इसप्रकार आकाशद्रव्य अखण्ड होकर भी अनंतप्रदेशी है और अनंतप्रदेशी होकर भी अखण्ड है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-४, पृष्ठ-६५ २. वही, पृष्ठ-६६ ३. वही, पृष्ठ-६७
SR No.008369
Book TitlePravachansara Anushilan Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages241
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size716 KB
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