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________________ १८६ प्रवचनसार अनुशीलन ज्ञान चित्रपट के समान है। जिसप्रकार चित्रपट में अतीत, अनागत और वर्तमान वस्तुओं के आलेख्याकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं; उसीप्रकार ज्ञानरूपी भित्ति में भी अतीत, अनागत और वर्तमान पर्यायों के ज्ञेयाकार साक्षात् एक क्षण में ही भासित होते हैं। सर्व ज्ञेयाकारों की तात्कालिकता अविरुद्ध है। जिसप्रकार नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं के आलेख्याकार वर्तमान ही हैं; उसीप्रकार अतीत और अनागत पर्यायों के ज्ञेयाकार भी वर्तमान ही हैं।" टीका के भाव को भावार्थ में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "केवलज्ञान समस्त द्रव्यों की तीनों काल की पर्यायों को युगपद् जानता है। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ज्ञान नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायों को वर्तमान काल में कैसे जान सकता है ? उसका समाधान है कि - जगत में भी देखा जाता है कि अल्पज्ञ जीव का ज्ञान भी नष्ट और अनुत्पन्न वस्तुओं का चिंतवन कर सकता है, अनुमान के द्वारा जान सकता है, तदाकार हो सकता है; तब फिर पूर्ण ज्ञान नष्ट और अनुत्पन्न पर्यायों को क्यों न जान सकेगा ? ___ ज्ञानशक्ति ही ऐसी है कि वह चित्रपट की भांति अतीत और अनागत पर्यायों को भी जान सकती है और आलेख्याकार की भांति द्रव्यों की ज्ञेयत्वशक्ति ऐसी है कि उनकी अतीत और अनागत पर्यायें भी ज्ञान में ज्ञेयरूप होती हैं, ज्ञात होती हैं। इसप्रकार आत्मा की अद्भुत ज्ञानशक्ति और द्रव्यों की अद्भुत ज्ञेयत्वशक्ति के कारण केवलज्ञान में समस्त द्रव्यों की तीनोंकाल की पर्यायों का एक ही समय में भासित होना अविरुद्ध है।" आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव इसीप्रकार व्यक्त करते हैं। गाथा-३७ १८७ कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा और उसकी टीकाओं के भाव को एक मनहरण कवित्त और बारह दोहों के माध्यम से समझाते हैं; जो अत्यन्त उपयोगी और प्रयोजनभूत है; अत: वे सभी छन्द अर्थ सहित यहाँ प्रस्तुत हैं (मनहरण) जेते परजाय षद्रव्यन के होय गये, अथवा भविष्यत जे सत्ता में विराज हैं। ते ते सब भिन्न भिन्न सकल विशेषजुत, शुद्ध ज्ञान भूमिका में ऐसे छबि छाजें हैं ।। जैसे ततकाल वर्तमान को विलोकैं ज्ञान, तैसे भगवान अविलोकैं, महाराजैं हैं। भूतभावी वस्तु चित्रपट में निहारें जैसे, गहै ज्ञान ताको तैसे तहां भ्रम भाजै हैं ।।१६७ ।। छह द्रव्यों की जितनी भी पर्यायें अभी तक हो गई हैं अथवा भविष्य में होनेवाली हैं, अभी सत्ता में विराजमान हैं; शुद्धज्ञान की भूमिका में वे सभी सम्पूर्ण विशेषताओं के साथ भिन्न-भिन्न वैसी ही शोभायमान होती हैं, जैसी वर्तमान पर्यायें प्रतिभासित होती हैं। उन भूत-भावी पर्यायों को केवली भगवान वर्तमान पर्यायों के समान ही जानते-देखते हैं। जिसप्रकार हम भूतकाल और भविष्यकाल की घटनाओं को चित्रपट में देखते हैं और हमारा भ्रम भंग हो जाता है, उसीप्रकार केवली भगवान देखते हैं। (दोहा) वर्तमान के ज्ञेय को जो जानत है ज्ञान । तामें तो शंका नहीं देखत प्रगट प्रमान ।।१६८।। भूत भविष्यत पर्ज तो है ही नाहीं मित्त । तब ताको कैसे लखै यह भ्रम उपजत चित्त ।।१६९।। बाल अवस्था की कथा जब उर करिये याद ।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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