SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-३५ १७६ प्रवचनसार अनुशीलन दूसरी बात यह है कि अपने से अभिन्न समस्त ज्ञेयाकाररूप परिणमित ज्ञानरूप स्वयं परिणमित होनेवाले को, कार्यभूत समस्त ज्ञेयाकारों के कारणभूत समस्त पदार्थ ज्ञानवर्ती ही कथंचित् हैं; इसलिए ज्ञाता और ज्ञान के विभाग की क्लिष्ट कल्पना से क्या प्रयोजन है ?" आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति में भी इस गाथा का भाव इन्हीं उदाहरणों से इसीप्रकार स्पष्ट किया है। ___कविवर वृन्दावनदासजी प्रवचनसार परमागम में इस गाथा और इसकी टीकाओं के भाव को ११ छन्दों में विस्तार से स्पष्ट करते हैं, जो मूलतः पठनीय हैं। नमूने के रूप में एक छन्द प्रस्तुत है - (षटपद्) जो जाने सो ज्ञान जुदी कछु वस्तु न जानो। आतम आपहि ज्ञान धर्मकरि ज्ञायक मानो।। ज्ञानरूप परिनवे स्वयं यह आतमरामा । सकल वस्तु तसुबोधमाहिं निवसैं करि धामा ।। जद्यपि संज्ञा संख्यादितें भेद प्रयोजनवश कहा। तद्यपि प्रदेशतें भेद नहिं एक पिंड चेतन महा ।।१५०।। जो जानता है, वही ज्ञान है। इस ज्ञान और आत्मा को जुदी वस्तु नहीं समझो; क्योंकि आत्मा स्वयं ज्ञानरूप ही है और ज्ञानधर्म के कारण ही वह ज्ञायक है। यह आतमराम स्वयं ही ज्ञानरूप परिणमित होता है और जगत की सम्पूर्ण वस्तुएँ उस ज्ञान में स्थित हैं, झलकती हैं; निवास करती हैं। यद्यपि संज्ञा, संख्या आदि की अपेक्षा आत्मा और ज्ञान में भेद किये जाते हैं; तथापि आत्मा और ज्ञान में प्रदेशभेद नहीं है; आत्मा और ज्ञानादि अनंतगुण एक पिंडरूप ही हैं। इस गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - १७७ “आत्मा अपृथक्भूत कर्तृत्व और करणत्व की शक्तिरूप परमेश्वर्यवाला होने से जो स्वयं ही जानता है; अर्थात् जो ज्ञायक है, वही ज्ञान है। सम्यक्श्रुतज्ञान में चौथे गुणस्थान में आत्मा कर्ता और ज्ञान करण - ऐसे भेद नहीं हैं। आत्मा स्वयं ही ज्ञानरूप परिणमता है। प्रश्न - श्रुत और राग को तो निकाल दिया, किन्तु आत्मा ज्ञानी और ज्ञान - ये भेद तो हैं न? समाधान - नहीं। प्रश्न - ज्ञान ने आत्मा को जाना अर्थात् भेद है ? समाधान - नहीं । ज्ञान के साधन द्वारा आत्मा को जानते हैं - इसे भी निकाल दिया है। निमित्त और व्यवहार साधन तो दूर ही रह गये, किन्तु आत्मा स्वयं कर्ता और ज्ञान साधन - ऐसा भेद नहीं है। निमित्त और पुण्य के परिणाम साधन - इस बात को तो पहले ही निकाल दिया था। निमित्त और राग से दूर, श्रुत उपाधि से दूर और कर्ता और करण के भेद से भी उसे दूर बताया है। आत्मा स्वयं कर्ता और स्वयं करण - ऐसे अभेदस्वरूप से परमेश्वर है। कर्ता और करण के भेद की परमेश्वरता नहीं है। आत्मा ज्ञान है तथा वह ज्ञान द्वारा जानता है - ऐसा भेद आत्मा में नहीं है।' जैसे अग्नि उष्णता द्वारा जलाती है - ऐसा नहीं है वैसे ही आत्मा ज्ञान द्वारा जानता है - ऐसा भी नहीं हैकिन्तु स्वयं ही ज्ञानरूप से परिणमता है, गुण-गुणी भेद नहीं है, अभेद है। आत्मा श्रुतज्ञान द्वारा जानता है - ऐसा भेद नहीं है। आत्मा ज्ञानरूप परिणमित हो गया है। जैसे अग्नि को उष्ण कहते हैं, अग्नि और उष्णता पृथक् नहीं है; वैसे ही आत्मा और ज्ञान पृथक् नहीं है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२५८ २. वही, पृष्ठ-२५९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy