SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६८ गाथा-३३ प्रवचनसार अनुशीलन जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होई ।।१६९।। व्यवहारनय से केवली भगवान सभी को जानते-देखते हैं और निश्चयनय से केवली भगवान मात्र आत्मा को ही जानते-देखते हैं। केवली भगवान निश्चय से आत्मस्वरूप को ही देखते-जानते हैं, लोकालोक को नहीं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहे तो उसमें क्या दोष है ? तात्पर्य यह है कि ऐसा कहने में भी कोई दोष नहीं है। केवली भगवान व्यवहार से लोकालोक को देखते-जानते हैं, आत्मा को नहीं। यदि कोई व्यक्ति ऐसा कहता है तो उसमें क्या दोष है ? तात्पर्य यह है कि ऐसा कहने में भी कोई दोष नहीं है।' इसीप्रकार का भाव कलश में भी आया है, जो इसप्रकार है - (वसंततिलका) 'जानाति लोकमखिलं खलु तीर्थनाथ: स्वात्मानमेकमनघं निजसौख्यनिष्ठम् । नो वेत्ति सेऽयमिति तं व्यवहारमार्गाद् ___वक्तीति कोऽपि मुनिपो न च तस्स दोषः ।। तीर्थंकर भगवान वास्तव में समस्त लोक को जानते हैं और वे एक निर्दोष, निजसुख में लीन आत्मा को नहीं जानते - कोई मुनिवर व्यवहारमार्ग से ऐसा कहते हैं तो कोई दोष नहीं है।' क्या उक्त कथनों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि निश्चयकेवली अलग होते हैं और व्यवहारकेवली अलग; तथा निश्चयकेवली मात्र आत्मा को जानते हैं और व्यवहारकेवली मात्र लोकालोक को? इसीप्रकार क्या यह अर्थ भी निकाला जा सकता है कि जब केवली निश्चय में होते हैं, तब मात्र आत्मा को जानते हैं; और जब व्यवहार में होते हैं, तब मात्र लोकालोक को जानते हैं ? नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि केवली दो प्रकार के होते ही नहीं। एक ही केवली का दो प्रकार से निरूपण किया जाता है - एक निश्चयकेवली और दूसरे व्यवहारकेवली। जो केवली जिससमय आत्मा को जानने के कारण निश्चयकेवली कहे जाते हैं, वे ही केवली उसीसमय लोकालोक को जानने के कारण व्यवहारकेवली कहे जाते हैं; न तो उनमें व्यक्तिभेद होता है और न समयभेद। ___इसीप्रकार निश्चयश्रुतकेवली और व्यवहारश्रुतकेवली पर घटित कर लेना चाहिए। प्रश्न - शास्त्रों में जिन श्रुतकेवलियों की बात आती है, वे तो सभी मुनिराज ही थे; फिर चतुर्थ गुणस्थान से श्रुतकेवली होते हैं - यह आप कैसे कहते हैं? उत्तर - सौधर्मादि इन्द्र, लोकान्तिकदेव एवं सर्वार्थसिद्धि आदि के अहमिन्द्र भी तो द्वादशांग के पाठी और आत्मानुभवी होते हैं। तथा यह तो आप जानते ही हैं कि देवगति में संयम नहीं होता; अत: उनका गुणस्थान भी चौथे से ऊपर नहीं होता। यद्यपि यह बात सत्य है कि चौथे से बारहवें गुणस्थान तक के जीव श्रुतकेवली हो सकते हैं; तथापि इसका आशय यह कदापि नहीं कि चतुर्थ गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक का प्रत्येक व्यक्ति श्रुतकेवली होता है; क्योंकि श्रुतकेवली होने के लिए स्वसंवेदनज्ञानी और द्वादशांग का पाठी - दोनों शर्ते पूरी होना अनिवार्य है। प्रश्न - जब चौथे गुणस्थान में श्रुतकेवली हो सकते हैं तो फिर तो पंचमकाल में भी श्रुतकेवली हो सकते होंगे; क्योंकि पंचमकाल में भी छठवेंसातवें गुणस्थान में झूलनेवाले भावलिंगी संत हो सकते हैं, होते भी हैं। उत्तर - हाँ, हाँ क्यों नहीं ? अवश्य हो सकते हैं; क्योंकि अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु पंचमकाल में ही हुए हैं। उनके पहले भी अनेक श्रुत१. समयसार अनुशीलन भाग १ (द्वितीय संस्करण), पृष्ठ ९८-१००
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy