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________________ १६४ गाथा-३३ १६५ प्रवचनसार अनुशीलन धारक चेतनस्वभाव से एकत्व होने से हम भी क्रमशः परिणमित कतिपय चैतन्य विशेषों से युक्त श्रुतज्ञान द्वारा केवल आत्मा को आत्मा से आत्मा में अनुभव करने के कारण श्रुतकेवली हैं। इसलिए विशेष आकांक्षा के क्षोभ से बस हो, हम तो स्वरूपनिश्चल ही रहते हैं।" मूल गाथा में निश्चय श्रुतकेवली का स्वरूप समझाया गया है। कहा गया है कि जो श्रुतज्ञान के द्वारा ज्ञायकस्वभावी आत्मा को जानता है, उसे श्रुतकेवली कहते हैं। उक्त कथन स्पष्ट करते हुए, टीका में निश्चय केवली से निश्चय श्रुतकेवली की तुलना की गई है और कहा गया है कि जिसप्रकार निश्चय से केवली भगवान केवलज्ञान द्वारा केवल आत्मा को जानने के कारण केवली हैं; उसीप्रकार श्रुतकेवली श्रुतज्ञान द्वारा केवल आत्मा को जानने के कारण श्रुतकेवली हैं। जब दोनों ही केवल आत्मा को जानने के कारण केवली या श्रुतकेवली हैं तो फिर अधिक जानने की आकुलता से क्या लाभ है ? आत्मा के कल्याण के लिए तो स्वरूप में निश्चल रहना ही पर्याप्त है। टीका में जिस आत्मा के अनुभव की चर्चा है, उसके संबंध में केवली और श्रुतकेवली दोनों ही प्रकरणों में एक समान विशेषणों का उपयोग किया गया है; दोनों में ही अनुभवगम्य आत्मा को अनादिनिधन, निष्कारण, असाधारण, स्वस्वेद्यमान चैतन्य सामान्य महिमावान और चेतनस्वभावी बताया गया है; किन्तु केवलज्ञान और श्रुतज्ञान संबंधी विशेषणों में कहा गया है कि केवलज्ञान युगपत् परिणमित है और श्रुतज्ञान क्रमशः परिणमित है, केवलज्ञान समस्त सामान्य चैतन्य विशेषों से युक्त है और श्रुतज्ञान कतिपय चैतन्य विशेषों से युक्त है। ऐसा होने पर चेतनस्वभावी आत्मा में एकत्व केवली और श्रुतकेवली में समान है, दोनों का जानना भी समान है; अत: उक्त अन्तर होते हुए भी दोनों में कोई अन्तर नहीं है। आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान करते हुए भी अन्त में सूर्य और दीपक का उदाहरण देकर समझाते हैं; जो इसप्रकार है___ “जिसप्रकार कोई देवदत्त नामक पुरुष दिनमें सूर्योदय से देखता है और रात्रि में दीपक से देखता है; उसीप्रकार केवली भगवान सूर्योदय के प्रकाश में देखने समान केवलज्ञान से आत्मा को जानते-देखते हैं और संसारी विवेकीजन दीपक के प्रकाश के समान श्रुतज्ञान से रागादि विकल्पों से रहित परमसमाधि में निज आत्मा को जानते-देखते हैं, अनुभव करते हैं। तात्पर्य यह है कि आत्मा परोक्ष है; अत: उसका ध्यान कैसे कर सकते हैं?' इसप्रकार के संशय में पड़कर परमात्वभावना को छोड़ना उचित नहीं है।" निश्चय श्रुतकेवली के स्वरूप को स्पष्ट करनेवाली इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए वृन्दावनदासजी ने बड़े-बड़े छह छन्द लिखे हैं; जो मूलत: पठनीय हैं; उन सभी को यहाँ देना संभव नहीं हैफिर भी अन्त में दिया गया दोहा इसप्रकार है - (दोहा) शब्दब्रह्मकरि जिन लख्यो, ज्ञानब्रह्म निजरूप। ताही को श्रुतिकेवली, भाषतु हैं जिनभूप ।।१४८।। जिन्होंने शब्द ब्रह्म के माध्यम से ज्ञानब्रह्म रूप निज आत्मा देखा है; उन्हीं को जिनेन्द्र भगवान श्रुतकेवली कहते हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “अब केवलज्ञानी और श्रुतज्ञानी अर्थात् सम्यग्दृष्टि सामान्यरूप से समान है, उनमें अन्तर नहीं है - यह दर्शाते हैं। राग-द्वेष की अस्थिरता को गौण करो तो सम्यग्दृष्टि और केवलज्ञानी में अन्तर नहीं । इस गाथा में
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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