SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-३२ १६० प्रवचनसार अनुशीलन काम-क्रोधादि एवं पंचेन्द्रियों के विषयों को ग्रहण नहीं करते और ज्ञानादि अनन्त चतुष्टयों को छोड़ते नहीं हैं तथा एकसाथ सबको जानते हुए भी उनरूप परिणमित नहीं होते। इसकारण भी परद्रव्यों से भिन्न ही हैं। कविवर वृन्दावनदासजी इस बात को अनेक छन्दों में स्पष्ट करते हैं (मनहरण) केवली जिनेश परवस्तु को न गहै तजै, तथा पररूप न प्रनवै तिहूँ काल में । जातें ताकी ज्ञानजोति जगी है अकंपरूप, छायक स्वभावसुख वेवै सर्व हाल में ।। सोई सर्व वस्तु को विलौकै जाने सरवंग, रंच हून बाकी रहै ज्ञान के उजाल में। आरसी की इच्छा बिना जैसे घटपटादिक, होत प्रतिबिंबित त्यों ज्ञानी गुनमाल में ।।१३६।। केवली भगवान परवस्तुओं को ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं हैं और तीनों काल में कभी भी पररूप परिणमित नहीं होते। उनकी ज्ञान ज्योति अकंपरूप जगमगा रही है; क्योंकि क्षायिकभाव रूप है और उन्हें सभी स्थितियों में स्वाभाविक सुख प्राप्त है। वह केवलज्ञान ज्योति सभी वस्तुओं को सर्वांग देखती-जानती है, उसके प्रकाश में रंचमात्र भी ज्ञेय शेष नहीं रहते। जिसप्रकार दर्पण की इच्छा के बिना ही उसमें घटपटादि पदार्थ झलकते हैं; उसीप्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान में बिना इच्छा के ही सभी पदार्थ झलकते हैं। (दोहा) राग उदयतें संगरह, दोष भावतें त्याग । मोह उदय पर-परिनमन, ऐसे तीन विभाग ।।१३७।। गहन-तजन-परपरिनमन, इन ही तें नित होत । तास नाश करि के भयो, केवल जोत उदोत ।।१३८।। जिनकी ज्ञानप्रभा अचल, यथा महामनि जोत । प्रथमहिं जो सब लखि लियो, सोन अन्यथा होत ।।१३९।। जथा आरसी स्वच्छ के, इच्छा को नहिं लेश । लसत तहाँ घटपट प्रगट, यही सुभाव विशेष ।।१४०।। तैसे श्रीसरवज्ञ के, इच्छा को नहिं अंस । निरइच्छा जानत सकल, शुद्धचिदातम हंस ।।१४१।। राग के उदय से यह जीव पर-पदार्थों का संग्रह करता है और द्वेषभाव के कारण उनका त्याग करता है तथा मोह के उदय में पर के रूप में परिणमन करता है अर्थात् उनमें अपनापन करता है। इसप्रकार से मोह के तीन भाग हो जाते हैं। ___इन राग-द्वेष-मोह के कारण ही ग्रहण-त्याग और पर-परिणमन होता है। हे भगवन् ! आपने राग-द्वेष-मोह - इन तीनों का नाश कर दिया है; इसकारण आपको केवलज्ञानज्योति प्रगट हो गई है। ___ महामणि की ज्योति के समान जिनकी ज्ञानप्रभा अचल है। उस ज्ञान प्रभा ने जो जैसा पहले से देख लिया है, वह वैसा ही होता है, अन्यथा नहीं होता। जिसप्रकार स्वच्छ दर्पण के कोई इच्छा नहीं होती और उसमें घटपटादि पदार्थ झलकते हैं। ऐसा ही स्वभाव ज्ञान का है। सर्वज्ञ भगवान के भी कोई इच्छा नहीं होती और उनके ज्ञान में लोकालोक के सभी पदार्थ झलक जाते हैं। उक्त गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “पहले आत्मा तथा उसका ज्ञान पर में प्रविष्ट होता है तथा पर के द्रव्य-गुण-पर्याय आत्मा में प्रविष्ट होते हैं - ऐसे निमित्त-नैमित्तिक संबंध की बात की थी; किन्तु वास्तव में आत्मा का स्वभाव लोकालोकरूपी पर-पदार्थों के ग्रहण-त्याग का नहीं है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२३५
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy