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________________ कलश-१ प्रवचनसार अनुशीलन में अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय आनन्द की अन्तराधिकार के रूप में विशेष चर्चा होगी। उक्त चर्चा का बीज भी 'ज्ञानानन्दात्मने' के रूप में इस कलश में आ गया है। यद्यपि यह ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा सर्वपदार्थों को जानने के स्वभाववाला होने से सर्व पदार्थों में व्यापक है - ऐसा कहा जाता है; तथापि वह अपने एक ज्ञानदर्शनरूप चैतन्यस्वरूप ही रहता है।। ___भगवान आत्मा सर्वव्यापक है' इस बात को आचार्य कुन्दकुन्ददेव आगे यथास्थान स्वयं गाथा द्वारा स्पष्ट करेंगे; अत: इसके संदर्भ में विशेष मंथन वहाँ ही होगा। यहाँ तो मात्र इतना कहना ही पर्याप्त है कि आत्मा सर्व पदार्थों को जानने के स्वभाववाला होने से सर्वव्यापक है और अपने ज्ञान-दर्शन चैतन्यस्वभावरूप होने से चित्स्वरूप है। यह भगवान आत्मा सर्वव्यापक होकर भी चित्स्वरूप है और चित्स्वरूप होकर भी सर्वव्यापक है। हमारा यह भगवान आत्मा हमें स्वानुभूति में प्राप्त होता है; इसकारण उसे यहाँ स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय कहा गया है। इसप्रकार मंगलाचरण के इस छन्द का सामान्यार्थ यही है कि आत्मानुभूति में प्राप्त होनेवाला ज्ञानानन्दस्वभावी भगवान आत्मा सर्वव्यापक होकर भी अपने चैतन्यस्वरूप की मर्यादा के बाहर नहीं जाता। ऐसा भगवान आत्मा मैं ही हूँ, कोई अन्य नहीं - ऐसी प्रतीति पूर्वक उपयोग का अन्तर्मुख होना ही भगवान आत्मा को नमस्कार है। तत्त्वप्रदीपिका के मंगलाचरण संबंधी उक्त छन्द का भावानुवाद प्रवचनसार परमागम में कविवर वृन्दावनदासजी इसप्रकार करते हैं - (दोहा) महातत्त्व महनीय मह महाधाम गुणधाम । चिदानन्द परमातमा बंदौं रमताराम ।।२।। अपने आप में रमण करनेवाला जो चिदानन्द परमात्मा गुणों का धाम है, महान तेजवान है, महनीय है, महान है और महातत्त्व अर्थात् सर्वश्रेष्ठ तत्त्व है; उस चिदानन्द परमात्मा की मैं वंदना करता हूँ। प्रश्न - मंगलाचरण के इस छन्द में कारणपरमात्मा को ही नमस्कार क्यों किया गया; कार्यपरमात्मा को क्यों नहीं ? उत्तर – एक बात तो यह है कि कारणपरमात्मा के आश्रय से ही कार्यपरमात्मा बनते हैं; इसकारण कारणपरमात्मा कार्यपरमात्मा से भी महान है। दूसरे कार्यपरमात्मा तो हमारे लिए अभी परपरमात्मा के रूप में ही हैं। जबकि कारणपरमात्मा हम स्वयं हैं। कार्यपरमात्मा हमारे हित में उत्कृष्ट निमित्त तो हैं; पर उपादान नहीं। हमारे हितरूप कार्य का त्रिकाली उपादान तो हमारा कारणपरमात्मा ही है। प्रश्न - हम तो सर्वत्र ऐसा ही देखते हैं कि मंगलाचरण में देवशास्त्र-गुरु को ही स्मरण किया जाता है ? उत्तर - आपकी बात सत्य है; क्योंकि अधिकांशत: वैसा ही देखने में आता है; तथापि आचार्य अमृतचन्द्र तो सर्वप्रथम कारणपरमात्मा को ही याद करते हैं। समयसार की आत्मख्याति टीका में भी वे नमः समयसाराय कहकर सर्वप्रथम त्रिकालीध्रव कारणपरमात्मा को ही नमस्कार करते हैं। आत्मख्याति और तत्त्वप्रदीपिका के मंगलाचरण के छन्दों में एक अद्भुत समानता देखने को मिलती है। जिसप्रकार आत्मख्याति के मंगलाचरण के प्रथम छन्द में भाव कहकर द्रव्य, चिद्स्वभाव कहकर गुण और सर्वभावान्तरच्छिदे व स्वानुभूत्या चकासते कहकर पर्यायस्वभाव को स्पष्ट किया गया है; उसीप्रकार यहाँ इस तत्त्वप्रदीपिका के मंगलाचरण के प्रथम छन्द में परात्मने कहकर द्रव्य, चिद्स्वरूपाय एवं ज्ञानानन्दात्मने कहकर गुण और सर्वव्यापी एवं स्वोपलब्धिप्रसिद्धाय कहकर पर्यायस्वभाव को स्पष्ट किया गया है।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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