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________________ गाथा-२८-२९ १५१ १५० प्रवचनसार अनुशीलन पर्याय में परिणमित हुआ है - ऐसा स्वभाव है। समस्त ज्ञेयाकारों को जानता-देखता होने से व्यवहार में कहा जाता है कि आत्मा का परद्रव्य और उनकी पर्यायों में प्रवेश हो गया है। इसतरह व्यवहार से, ज्ञेय पदार्थों में आत्मा का प्रवेश सिद्ध होता है।" उक्त गाथाओं में मात्र यही कहा गया है कि जिसप्रकार जब हम आँखों से जानते-देखते हैं, तब न तो आँखों को रूपी पदार्थों के पास जाना पड़ता है और न पदार्थों को ही आँखों में प्रवेश करना पड़ता है; आँखें और पदार्थ दोनों अपनी-अपनी जगह रहते हुए भी हम आँखों से पदार्थों को देख लेते हैं, जान लेते हैं और पदार्थ भी हमारे देखने-जानने में आ जाते हैं। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अग्नि को जानने से आँखें जलती नहीं हैं। _इसीप्रकार की स्थिति ज्ञान की भी है। ज्ञेय पदार्थों को देखने-जानने के लिए ज्ञान को न तो किन्हीं ज्ञेय पदार्थों के पास जाना पड़ता है और न वे ज्ञेय पदार्थ ही ज्ञान में प्रविष्ठ होते हैं; दोनों के अपने-अपने स्वभाव में स्थित रहने पर भी ज्ञान ज्ञेय पदार्थों को जान लेता है और ज्ञेय पदार्थ ज्ञान में प्रतिबिम्बित हो जाते हैं। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि ज्ञेयों को जानने से ज्ञान में कुछ भी विकृति उत्पन्न नहीं होती तथा ज्ञेयों पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ता। अत्यन्त स्पष्ट उक्त वस्तुस्थिति होने पर भी यह प्रश्न उपस्थित होता ही है कि ज्ञान ने ज्ञेयों में प्रवेश किया कि नहीं अथवा ज्ञेय ज्ञान में आये कि नहीं? यदि ज्ञान ने ज्ञेयों में प्रवेश ही नहीं किया है तो फिर ज्ञान को सर्वगत कैसे कहा जा सकता है ? इसीप्रकार ज्ञेयों ने ज्ञान में प्रवेश नहीं किया है तो फिर ज्ञेयों को ज्ञानगत १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-२२४ या आत्मगत कैसे कहा जा सकता है ? यदि दोनों ने परस्पर एक-दूसरे में प्रवेश किया है तो फिर वे दोनों एक-दूसरे से अप्रभावित कैसे रह सकते हैं ? उक्त प्रश्नों का उत्तर यहाँ नयविभाग से दिया गया है। निश्चयनय से न तो ज्ञान ज्ञेय पदार्थों में प्रवेश करता है और न ज्ञेय पदार्थ ही ज्ञान में प्रवेश करते हैं; इसकारण वे एक-दूसरे से प्रभावित भी नहीं होते हैं। ___ यद्यपि ज्ञान और ज्ञेय एक-दूसरे में प्रविष्ट नहीं होते; तथापि ज्ञान ज्ञेयपदार्थों को जानता है; इस अपेक्षा वह ज्ञेयों में गया - ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है और इसी अपेक्षा आत्मा व ज्ञान सर्वगत हैं। इसीप्रकार ज्ञेय ज्ञान में प्रतिबिम्बित होते हैं - इस अपेक्षा ज्ञेय ज्ञान में आ गये - ऐसा व्यवहारनय से कहा जाता है और इसी अपेक्षा ज्ञेय ज्ञानगत या आत्मगत यवहारवधवाओमश्चेबैहारनय के कथनों में जो परस्पर विरोध दिखाई देता है, वह. विषयगत है। अनेकान्तात्मक वस्तु में जो परस्पर विरोधी धर्मयुगल पाये जाते हैं, उनमें से एक धर्म निश्चय का और दूसरा धर्म व्यवहार का विषय बनता है। जिस दृष्टि से निश्चय-व्यवहार एक-दूसरे का विरोध करते नजर आते हैं, उसी दृष्टि से वे एक-दूसरे के पूरक भी हैं। कारण कि वस्तु जिन विरोधी धर्मों को स्वयं धारण किए हुए हैं, उनमें से एक का कथन निश्चय और दूसरे का कथन व्यवहार करता है। यदि दोनों नय एक पक्ष को ही विषय करने लगें तो दूसरा पक्ष उपेक्षित हो जावेगा। अत: वस्तु के सम्पूर्ण प्रकाशन एवं प्रतिपादन के लिए दोनों नय आवश्यक हैं, अन्यथा वस्तु का समग्र स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पावेगा। जहाँ एक ओर निश्चय और व्यवहार में प्रतिपाद्य-प्रतिपादक संबंध है; वहीं दूसरी ओर व्यवहार और निश्चय में निषेध्य-निषेधक संबंध भी है। निश्चय प्रतिपाद्य है और व्यवहार उसका प्रतिपादक है। इसीप्रकार व्यवहार निषेध्य है और निश्चय उसका निषेधक है। - परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ-५२-५३
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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