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प्रवचनसार अनुशीलन
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
" शेष समस्त चेतन और अचेतन वस्तुओं के साथ समवाय ( तादात्म्य) संबंध नहीं होने से और आत्मा के साथ अनादि अनंत स्वभावसिद्ध समवाय संबंध होने से, आत्मा का अति निकटता से अवलम्बन करके प्रवर्तमान होने से और आत्मा के बिना अपना अस्तित्व ही नहीं रख पाने के कारण ज्ञान आत्मा ही है तथा आत्मा तो अनंत धर्मों का अधिष्ठान होने से ज्ञान धर्म द्वारा ज्ञान है और अन्य धर्मों द्वारा अन्य भी है।
यहाँ अनेकान्त बलवान है; क्योंकि यदि ऐसा माना जाय कि एकान्त ज्ञान ही आत्मा है तो ज्ञानगुण और आत्मद्रव्य एक हो जाने से ज्ञानगुण का अभाव हो जायेगा, इसकारण आत्मा अचेतन हो जावेगा अथवा विशेषगुण का अभाव होने से आत्मा का ही अभाव हो जावेगा।
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यदि यह माना जाय कि आत्मा सर्वथा ज्ञान है तो आत्मद्रव्य के एक ज्ञानगुणरूप हो जाने से ज्ञान का कोई आधारभूत द्रव्य नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जावेगा अथवा आत्मद्रव्य के एक ज्ञानगुणरूप हो जाने से आत्मा की शेष पर्यायों (सुखवीर्यादिगुणों) का अभाव हो जायेगा और उनके साथ अविनाभावी संबंधवाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; तथापि अन्त में निष्कर्ष के रूप में लिखते हैं कि यहाँ अभिप्राय यह है कि आत्मा व्यापक है और ज्ञान व्याप्य है; इसलिए ज्ञान आत्मा है, परन्तु आत्मा ज्ञान भी है और अन्य भी है। कहा भी है- व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च व्यापक तद् और अद्- दोनों में रहता है और व्याप्य मात्र तद् में ही रहता है। इस गाथा का भाव वृन्दावनदासजी दो छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
गाथा - २७
( मनहर ) जोई ज्ञान गुण सोई आतमा वखाने जातें,
दोऊ में कथंचित न भेद ठहरात है। आतमा बिनान और द्रव्यमांहि ज्ञान लसे,
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ज्ञान गुन जीव में ही दीखे जहरात है ।। तथा जैसे ज्ञान गुण जीव में विराजै तैसे,
और हूँ अनन्त गुण तामें गहरात है । गुण को समूह दव्व अपेक्षा सों सिद्ध सव्व,
ऐसो स्याद्वाद को पताका फहरात है ।। १३० ।। यदि ऐसा कहें कि जो ज्ञानगुण है, वही आत्मा है तो ज्ञान और आत्मा - इन दोनों में कथंचित् भी भेद नहीं रहेगा । वस्तुस्थिति यह है कि आत्मा को छोड़कर अन्य किसी द्रव्य में ज्ञान नहीं है, ज्ञानगुण तो एकमात्र जीव में ही है। एक बात यह भी है कि जीव में जिसप्रकार ज्ञानगुण है; उसीप्रकार और अनन्त गुण जीव में हैं; क्योंकि गुणों के समूह को ही तो द्रव्य कहते हैं। अपेक्षा से सभी बातें सिद्ध होती हैं और इसीप्रकार स्याद्वाद का झंडा लहराता है।
(द्रुमिला)
गुण ज्ञानहि को जदि जीव कहैं, तदि और अनन्त जिते गुण हैं। तिनको तब कौन अधार बने, निरधार विना कहु को सुन है ? ।। नमाहिं नहीं गुन और बसें, श्रुति साधत श्रीजिनकी धुन है । तिसगुन पर्ज अनंतमयी, चिनमूरति द्रव्य सु आपुन है ।। १३१ ।। यदि ज्ञानगुण को ही जीव कहेंगे तो जीव में जो अन्य अनंतगुण हैं; उनका आधार कौन बनेगा? निराधार तो कोई गुण होता नहीं है। एक गुण में अन्य गुण रहते नहीं हैं यह बात तो जिनेन्द्रदेव की वाणी में आई है। और शास्त्राधार से भी सिद्ध है। इसलिए यही स्वीकार करना उचित है कि चैतन्यमूर्ति अपना आत्मद्रव्य अनन्त गुणपर्यायवाला है ।
उक्त गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -