________________
प्रवचनसार अनुशीलन
वह ज्ञान धरम है जीव को, धरमी धरम सु एक अत । या नयतें श्री सर्वज्ञ को, कहैं जथारथ सर्वगत ।। १२२ ।। जिसप्रकार निर्मल दर्पण में घटपटादि पदार्थ स्पष्ट रूप से प्रतिभासित होते हैं; किन्तु न तो दर्पण उनके पास जाता है और न वे घटपटादि पदार्थ दर्पण के पास आते हैं ।
१३६
उसी प्रकार सभी पदार्थ ज्ञान में प्रतिभासित होते हैं; किन्तु न तो ज्ञान उनके पास जाता है और न वे ज्ञान के पास आते हैं। ज्ञान का धर्म (स्वभाव) ऐसा ही है कि दूरस्थ ज्ञेयों को भी जाने और ज्ञेयों का धर्म (स्वभाव) ऐसा है कि दूरस्थ ज्ञान के ज्ञेय बनें।
इसप्रकार वस्तुस्वरूप को जानकर नयविवक्षा से यह कहना यथार्थ ही है कि सर्वज्ञ भगवान सर्वगत हैं।
इस गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"केवलज्ञान लोकालोक को जानता है, जिससे कहा कि केवलज्ञान लोकालोक में व्याप्त होता है; इसलिए पर्याय को सर्वगत कहा है। उस पर्याय को धारण करनेवाला आत्मा है। पर्याय, द्रव्य के आश्रय से टिकती है और परिणमित होती है, इसलिए आत्मा को सर्वगत कहते हैं। आत्मा ज्ञानप्रमाण है अर्थात् ज्ञान के प्रमाण में आत्मा है और आत्मा के प्रमाण में ज्ञान है - केवलज्ञान का ऐसा स्वरूप है। जो ऐसी प्रतीति करता है वह धर्म को प्राप्त करता है।
जिस ज्ञान पर्याय का यह लोकालोक विषय है, उस ज्ञान से आत्मा अभिन्न है; इसलिए लोकालोक आत्मा का विषय है - यह शास्त्र में कहा है । केवलज्ञान पर्याय लोकालोक में व्याप्त है; इसलिए आत्मा लोकालोक में व्याप्त है । केवलज्ञान पर्याय का विषय लोकालोक है; इसलिए आत्मा का विषय लोकालोक है। इसलिए सर्व पदार्थ भगवानगत ही हैं - ऐसा व्यवहार में कहा है।
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- १९४
२. वही, पृष्ठ- १९६
गाथा - २६
१३७
आत्मा में ज्ञेय जानने में आते हैं; इसलिए सर्वपदार्थ आत्मगत हैं - ऐसा कहते हैं । नैमित्तिकभूत ज्ञेयाकारों अर्थात् ज्ञान में हुई स्व-परप्रकाशक स्वच्छ अवस्थारूप ज्ञेयाकार। इन ज्ञेयाकारों को ज्ञानाकार भी कहने में आता है; क्योंकि ज्ञान ही इन ज्ञेयाकारोंरूप परिणमित हुआ है और परपदार्थों के द्रव्य-गुण-पर्याय उसके निमित्त हैं। जैसा ज्ञेय का स्वरूप है, वैसा ज्ञान अपने कारण से परिणमता है, ज्ञान अपनी सामर्थ्यरूप परिणमता है । ज्ञेयाकार अपनी ज्ञान की अवस्था है। इन ज्ञान के ज्ञेयाकारों को आत्मा में देखकर, समस्त परपदार्थ आत्मा में हैं ऐसा उपचार किया गया है। यही बात आगे ३१वीं गाथा में दर्पण के दृष्टान्त में समझायेंगे । '
जिसतरह आत्मा राग और पर का जाननेवाला है, किन्तु पर में प्रवेश नहीं करता; उसीतरह पर भी आत्मा में प्रवेश नहीं करते; किन्तु जैसे ज्ञेय हैं, वैसा आत्मा जानता है; इसलिए 'आत्मा को ज्ञेयगत' कहते हैं और ज्ञेय आत्मगत हुए कहलाते हैं - इसतरह उपचार करने में आया है।
परमार्थ से उनका एक-दूसरे में गमन नहीं होता। आत्मा पर को जानता है; इसलिए आत्मा पर में नहीं जाता और पर को जानने पर भी पर-पदार्थ आत्मा में नहीं जा जाते; क्योंकि सर्व ही द्रव्य स्वरूपनिष्ठ हैं - अपने-अपने स्वरूप में निश्चल रहते हैं, पर्याय बाहर नहीं जाती।
ज्ञान स्व-परप्रकाशक है यह सिद्ध करने के लिए यह बात ली गई। है। आत्मा को सर्वगत कहकर कहा गया है कि आत्मा सर्वगत उपचार से है, निश्चय से तो वह आत्मगत है। आनन्द के न्याय से भी आत्मा स्वगत है। बाहर के आश्रय से आनन्द नहीं है, आनन्द का क्षेत्र आत्मप्रमाण है; इस न्याय से आत्मा को स्वगत (आत्मगत) कहा है।
आत्मा और ज्ञेयों के विषय में जैसा निश्चय-व्यवहार कहा है, वैसा
१. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- १९६ ३. वही, पृष्ठ- २००
२. वही, पृष्ठ- २००
४. वही, पृष्ठ- २००