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________________ १२३ गाथा-२१-२२ उनकी पर्यायें और उनके भावों को अक्रमरूप से भगवान जानते हैं। पहले भूतकाल को जाने और इसके बाद भविष्य को जाने - ऐसा नहीं १२२ प्रवचनसार अनुशीलन जो सदा इन्द्रियातीत है, सर्व ओर से सर्वात्मगुणों से समृद्ध हैं और स्वयमेव ज्ञानरूप हुए हैं; उन केवली भगवान के कुछ भी परोक्ष नहीं है। उक्त गाथाओं की व्याख्या आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार करते हैं "केवली भगवान इन्द्रियों के आलम्बन से अवग्रह-ईहा-अवायपूर्वक क्रम से नहीं जानते; अपितु समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही अनादिअनंत, अहेतुक और असाधारण ज्ञानस्वभाव को ही कारणरूप ग्रहण करने से तत्काल ही प्रगट होनेवाले केवलज्ञानरूप होकर परिणमित होते हैं; इसलिए उनके समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावों का अक्रमिक ग्रहण होने से प्रत्यक्षज्ञान की आलम्बनभूत समस्त द्रव्य-पर्यायें प्रत्यक्ष ही हैं। समस्त आवरण के क्षय के क्षण ही जो भगवान सांसारिकज्ञान को उत्पन्न करने के बल को कार्यरूप देने में हेतुभूत ऐसी जो अपने-अपने निश्चित विषयों को ग्रहण करनेवाली इन्द्रियों से अतीत हुए हैं; जो स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्द के ज्ञानरूप सर्व इन्द्रियगुणों से सर्व ओर से समरसरूप से समृद्ध हैं अर्थात् सभी स्पर्शादि को सर्वात्मप्रदेशों से जानते हैं और जो स्वयमेव समस्तरूप से स्वपर का प्रकाशन करने में समर्थ, अविनाशी, लोकोत्तर ज्ञानरूप हुए हैं; ऐसे इन केवली भगवान को समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव अक्रमिक ग्रहण होने से कुछ भी परोक्ष नहीं है।" ___ तात्पर्यवृत्ति और प्रवचनसार परमागम में भी उक्त विषय को सामान्यरूप से इसीप्रकार स्पष्ट किया है। उक्त गाथाओं और टीका का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "केवलज्ञान पर्याय प्रगट होते ही उन्होंने समस्त द्रव्यों को उनके समस्त गुण-पर्यायों सहित अक्रम/एक ही साथ, एक समय में जाना है। पहले जीव को जाने, फिर अजीव जानने में आए - ऐसा नहीं होता अथवा पहले द्रव्य को जाने बाद में क्षेत्र को जाने - ऐसा भी नहीं है। ऐसा केवलज्ञान की पर्याय का स्वरूप ही नहीं है। समस्त द्रव्य, उनके क्षेत्र, केवलज्ञान इन्द्रियों के निमित्त बिना सर्व प्रदेशों से जानता है। अपने स्वयं के द्रव्य-गुण-पर्याय तथा पर के द्रव्य-गुण-पर्याय को जानता है। ऐसे अहेतुक ज्ञानस्वभाव को कारणपने ग्रहण करने से ज्ञान के आधार से प्रगट हुआ केवलज्ञान, स्वयमेव ही परिणमित होता है। इसलिए समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव को अवग्रहादिक्रम बिना ही जानने से केवली भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं है। यदि जीव ज्ञान की अपूर्णता और राग की विपरीतता छोड़ना चाहता है तो पूर्णज्ञानी किसतरह हुए हैं और वे कैसे होते हैं - ऐसी दृष्टि और ज्ञान यथार्थ करना चाहिए, इसके बिना पूर्णता नहीं हो सकती। निचलीदशा में जो खण्ड-खण्ड ज्ञान काम करता था, अब पूर्णदशा होने पर उस खण्डखण्ड ज्ञान का अभाव हुआ और वह अक्रमरूप से जानने लगा। केवली भगवान को ज्ञान, आत्मा के अवलम्बन से प्रगट हुआ है; इसलिए मुझे भी आत्मा के आश्रय से ही केवलज्ञान होगा; इसतरह जानकर आत्मा का अवलम्बन लेना ही धार्मिक क्रिया है। लेंडीपीपर में चौंसठ पुटी तिखास जो भीतर थी, वह आई है। तीनलोक व तीनकाल का ज्ञान अंदर ध्रुवस्वभाव की शक्ति में से आया है, किन्तु बाहर में से नहीं आया। इसतरह भगवान का ज्ञान समस्त द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव को क्रम रहित जानता है; इसलिए भगवान को कुछ भी परोक्ष नहीं होता।" उक्त गाथाओं का मूल वजन तो इस बात पर है कि केवलज्ञानी स्व -पर सभी पदार्थों को अपनी भूत-भावी और वर्तमान पर्यायों के साथ एक समय में वर्तमानवत् ही प्रत्यक्ष जानते हैं; क्योंकि अपने आत्मा के आश्रय से उत्पन्न उनका स्व-परप्रकाशक केवलज्ञान इन्द्रियाधीन नहीं है। वासेक्षाहीं है पृष्अतीन्द्रिय है और पूर्णत: स्वाधीनाहै १७७ .
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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