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________________ ११८ प्रवचनसार अनुशीलन ____ मुनि को जो आहार लेने का भाव आता है, वह २८ मूलगुण पालन में शामिल होने से पुण्यभाव है। मुनिपना तो अपूर्णदशा है, पूर्ण वीतरागीदशा नहीं; इसलिए वहाँ आहार लेने का विकल्प आ जाता है, किन्तु जिन्हें पूर्ण दर्शन-ज्ञान-प्रगट हो गया है - ऐसे केवली भगवान को किसी भी तरह आहार नहीं होता, यह बात यहाँ स्पष्ट करते हैं।' सर्वज्ञ भगवान को भाव-इन्द्रिय नहीं, इसलिए जड़-इन्द्रिय तथा द्रव्यमन विद्यमान होने पर भी उनके साथ केवली भगवान को थोड़ा भी निमित्त-नैमित्तिक संबंध नहीं कहा जा सकता । सर्वज्ञ भगवान सम्पूर्णरूप से अतीन्द्रिय हैं। जैसे अग्नि को घनों की भयंकर मार पड़ने की परम्परा नहीं होती अर्थात् लोहे के गोले के संसर्ग का अभाव होने पर घन की भयंकर मार अग्नि को नहीं पड़ती। वैसे ही, केवलज्ञानरूप हुए शुद्ध आत्माओं को शरीर संबंधी थोड़ा भी सुख-दुख नहीं होता; इसलिए केवली भगवान को क्षुधा-तृषा रोगादिक दोष नहीं होते। केवली भगवान अरहन्त को, जो चार अघातिया कर्म शेष हैं; वे भी मात्र जली हुई रस्सी के समान हैं; जैसे जली हुई रस्सी किसी को बांधने के काम में नहीं आती; वैसे ही अघाति कर्म कुछ भी दुःख उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते। सर्वज्ञ अरहन्त भगवान को शरीर है, किन्तु इन्द्रियों के साथ उनका संबंध टूट गया है; इसलिए इन्द्रिय और इन्द्रियज्ञान के निमित्तों का अभाव होने से केवली भगवान को क्षुधा-तृषादि दोष कभी नहीं होते।" प्रश्न - आचार्य जयसेन और कविवर वृन्दावनलालजी ने केवली कवलाहार के संदर्भ में जो विचार व्यक्त किये हैं; उन्हें तो यहाँ उद्धृत नहीं किया गया, अपितु मूलत: पठनीय है कहकर ही काम चला लिया; गाथा-१९-२० ११९ किन्तु स्वामीजी के विचारों को उद्धृत किया है। ऐसा क्यों किया गया? उत्तर - अरे भाई ! आचार्य जयसेन और कविवर वृन्दावनजी तो मूलत: दिगम्बर हैं; अत: उनके विचार तो परम्परागत रूप से ही स्पष्ट हैं; किन्तु स्वामीजी जिस परम्परा से आये हैं और उन्होंने उक्त परम्परा का गहरा अध्ययन कर अपना मत परिवर्तन किया है। इस दृष्टि से उनका कथन देना अधिक आवश्यक प्रतीत हुआ। दूसरे जो लोग आज भी उन्हें श्वेताम्बर ही मानते हैं और यह कहकर जनता को बरगलाते हैं कि वे तो दिगम्बरों को श्वेताम्बर बनाने आये थे और उनके अनुयायियों को भी प्रच्छन्न श्वेताम्बर कहने से नहीं चूकते; उनके लिए भी स्वामीजी उक्त वचन मार्गदर्शन अवश्य देंगे। प्रश्न - गाथा में तो ऐसा नहीं कहा कि केवली के कवलाहार नहीं होता । वहाँ तो मात्र इतना ही कहा है कि केवली के देहगत सुख-दुःख नहीं है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने भी तत्त्वप्रदीपिका टीका में मात्र इतना ही लिखा है कि केवली के देहगत सुख-दुःख नहीं है। इसमें केवली कवलाहार की बात कहाँ से आ गई ? आचार्य जयसेन, कविवर वृन्दावनजी एवं स्वामीजी ने व्यर्थ ही कवलाहार की बात उठाकर दिगम्बर-श्वेताम्बर का भेद खड़ा कर दिया है। उत्तर - अरे भाई! जगत में किसी को भी ऐसी धारणा हो सकती है कि अरहंत भगवान के देह विद्यमान है तो देहगत सुख-दुःख भी होंगे ही? ___ भूख का लगना एकप्रकार से देहगत दुःख ही है और उस दुःख को मेंटने का जगप्रसिद्ध उपाय कवलाहार ही है। इसके आधार पर यह कल्पना सहज ही हो सकती है कि देहधारी के कवलाहार होना ही चाहिए। इसप्रकार की धारणा से उत्पन्न शंका के समाधान बिना अरहंत भगवान का सही स्वरूप समझ पाना संभव नहीं है। अत: उक्त समस्त ऊहापोह १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१५७ ३. वही, पृष्ठ-१५८ २. वही, पृष्ठ-१५८ ४. वही, पृष्ठ-१५९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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