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________________ प्रवचनसार अनुशीलन जैनमान्यतानुसार देवों में अरहंत और सिद्ध परमेष्ठी आते हैं और गुरुओं में आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी आते हैं। अरहंतदेव द्वारा प्रतिपादित और गुरुओं द्वारा लिपिबद्ध वाणी ही शास्त्र है । इसप्रकार ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन या सम्यग्ज्ञान महाधिकार में देव का स्वरूप, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार में या सम्यग्दर्शनाधिकार में शास्त्र का और चरणानुयोगसूचक चूलिका अथवा सम्यक्चारित्राधिकार में गुरुओं के स्वरूप का प्रतिपादन है । ४ ध्यान रहे, मंगलाचरण में देव और गुरुओं को याद किया ही गया है, विशेषरूप से आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में बीच-बीच में जो गाथाएँ उपलब्ध होती हैं और जो तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं पाई जातीं; वे सभी अरहंत और सिद्ध परमेष्ठियों के स्मरणरूप ही है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि वे इस महाधिकार में देव का स्वरूप ही समझा रहे हैं । अतीन्द्रियज्ञान (सर्वज्ञता-केवलज्ञान) और अतीन्द्रिय अनंतसुख भी तो अरहंत - सिद्धों को ही प्राप्त है। इसप्रकार शुद्धोपयोग के फल में प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान और सुख का प्रतिपादन भी देव के स्वरूप का ही प्रतिपादन है। सिद्ध परमेष्ठी तो हमारे लिए मात्र आदर्श हैं, पर अरहंत परमेष्ठी जिनशास्त्रों के मूलाधार भी हैं। यही कारण है कि ८०वीं गाथा में साफ-साफ लिख दिया कि जो अरहंत भगवान को द्रव्य-गुण-पर्याय से जानते हैं; उनका मोह नाश को प्राप्त होता है। तात्पर्य यह है कि मोह के नाश के लिए अरहंत का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि पूरे ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन नामक प्रथम अधिकार में अरहंत-सिद्ध भगवान के प्रमुख गुण अनंतज्ञान और अनंतसुख का विस्तार से निरूपण है। इसप्रकार यह देव के स्वरूप का प्रतिपादक होने से देवाधिकार ही है। पृष्ठभूमि इस देवाधिकार के अन्त में शास्त्रों के स्वाध्याय करने की पावन प्रेरणा देकर अगले अधिकार में शास्त्रों में प्रतिपादित वस्तु के स्वरूप का सामान्य और विशेष प्रतिपादन किया गया है और स्व-पर का विवेक जागृत करने के लिए ज्ञान और ज्ञेय के विभाग को समझाया गया है और अन्तिम महाधिकार में गुरुओं के स्वरूप का प्रतिपादन है ही। इसप्रकार देवाधिदेवमहाधिकार, शास्त्रमहाधिकार और गुरुमहाधिकार के रूप में भी वर्गीकरण किया जाना भी अयुक्त नहीं है। श्रुतस्कन्धों के नाम से अभिहित इन महाधिकारों के अन्तर्गत भी अनेक अवान्तर अधिकार हैं; जिनकी चर्चा यथास्थान आवश्यकतानुसार होगी ही । तात्पर्यवृत्ति टीका के आरंभ में ही अपने वर्गीकरण को प्रस्तुत करते हुए आचार्य जयसेन पूर्ववर्ती आचार्य अमृतचन्द्र के वर्गीकरण का भी उल्लेख करते हैं। 'तात्पर्यवृत्ति' में आचार्य जयसेन ने अपने वर्गीकरण को पातनिका के रूप में यथास्थान सर्वत्र स्पष्ट किया ही है। यद्यपि यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र के वर्गीकरण के अनुसार प्रवचनसार के प्रतिपाद्य का अनुशीलन अभीष्ट है; इसकारण तत्त्वप्रदीपिका को मुख्य आधार बनाकर ही यह अनुशीलन किया जायेगा; तथापि आवश्यकतानुसार यथास्थान तात्पर्यवृत्ति का भी भरपूर उपयोग किया जायेगा। प्रयत्न रहेगा कि कोई भी नया प्रमेय अनुल्लिखित न रह जाय । इस अनुशीलन में आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका की पाण्डे मराजजी की व्रजभाषा में की गई टीका का पण्डित मनोहरलालजीकृत आधुनिक हिन्दी अनुवाद, पण्डित हिम्मतलाल जेठालाल शाह के गुजराती अनुवाद का पण्डित परमेष्ठीदासजीकृत हिन्दी अनुवाद, कविवर वृन्दावनदासजी के प्रवचनसार परमागम एवं आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचनों का भी भरपूर उपयोग किया जायेगा। इनके अतिरिक्त तत्संबंधी
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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