SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०८ प्रवचनसार अनुशीलन होनेवाली षट्गुनी हानि - वृद्धि के निमित्त से मुक्त आत्मा में समय-समय पर उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य वर्तते हैं। यहाँ जैसे सिद्धभगवान के उत्पादादि कहे हैं; उसीप्रकार केवली भगवान के भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए।" उक्त गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इस गाथा में किसी पर्याय से पदार्थ को ध्रुव कहा गया है, यहाँ पर्याय का अर्थ गुण समझना चाहिए।' एक वस्तु तीन अंशों द्वारा सिद्ध न हो तो वह वस्तु ही सिद्ध नहीं होगी। यदि एक वस्तु एक समय में न बदले तो वह दूसरे समय में भी नहीं बदलेगी व तीसरे समय में भी नहीं बदलेगी; इसप्रकार नहीं बदलने से अधर्मदशा का नाश करके धर्मदशा भी प्रगट नहीं हो सकेगी। सहवर्ती पर्याय से पदार्थ वास्तव में ध्रुव है और क्रमवर्ती पर्याय से पूर्व अवस्था का नाश होकर नई अवस्थारूप उत्पन्न होता है, इसप्रकार वह अध्रुव है। यदि अवस्था में परिणमन न हो तो कार्य नहीं हो सकता और यदि ध्रुवपना न हो तो ध्रुव के आधार बिना कार्य ही प्रगट नहीं होगा । प्रत्येक द्रव्य में उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य स्वयं से हैं, किन्तु पर के कारण नहीं। जैसे उत्तम सोने की बाजूबंद की पर्याय से उत्पत्ति दिखाई देती है, किन्तु सोनी और हथौड़ी से वह पर्याय उत्पन्न हुई है - ऐसा दिखाई नहीं देता । अन्य वस्तु भले ही वहाँ उपस्थित हो; किन्तु हथौड़ी, सोनी आदि से कार्य नहीं हुआ है। जगत के पदार्थ एक समय में रूपान्तरता को प्राप्त करते हैं; इसलिए मात्र ध्रुवपना वह पदार्थ का लक्षण नहीं है। अतः ध्रुवपने के साथ रूपान्तर होना चाहिए, तब ही वस्तु का स्वरूप सिद्ध होता है।* इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यमय होने से सिद्ध (मुक्त) १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- १४३ ३. वही, पृष्ठ- १४५ २. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- १४४ ४. वही, पृष्ठ- १४८ गाथा - १८ १०९ आत्मा को भी उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य ये तीनों ही अंश होते हैं । स्थूल दृष्टि से देखा जाय तो सिद्ध पर्याय का उत्पाद हुआ, संसार पर्याय का व्यय हुआ और गुणपने ध्रुव रहना - इस अपेक्षा से सिद्ध को उत्पाद-व्ययव्यपना है। अंतरंग में शुद्ध चिदानन्द स्वरूप विद्यमान है, उसमें से जो शुद्ध पर्याय प्रगट हुई, उसरूप उत्पन्न होना, पूर्व अवस्थारूप न होना और स्वयं गुणपने ध्रुव रहना इसप्रकार सिद्ध जीवों में भी उत्पाद-व्यय ध्रौव्य हैं । ' अत्यंत सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाये तो अगुरुलघुत्व से होनेवाली षट्गुणी हानि-वृद्धि के कारण मुक्त आत्मा में प्रत्येक समय उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य वर्तते हैं । अगुरुलघुत्व गुण में पूर्व अवस्था का व्यय होता है, नई अवस्थारूप उत्पन्न होता है और स्वयं ध्रुव रहता है। जिसप्रकार यहाँ सिद्ध भगवान के उत्पादादि कहे गये हैं; उसीप्रकार केवली भगवान के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य को भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए । २" कविवर वृन्दावनदासजी ने प्रवचनसार परमागम में उक्त सम्पूर्ण विषयवस्तु को समेटते हुए २६ छन्द लिखे हैं, जो मूलत: पठनीय हैं। उनमें से कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण छन्द इसप्रकार हैं - (दोहा) दरवमांहि दो शक्ति हैं भाषी गुन परजाय । इन बिन कबहुँ न सधि सकत कीजे कोटि उपाय ।। ८३ ।। नित्य तदातमरूपमय ताको गुन है नाम । जो क्रमकरि वरतै दशा सो परजाय ललाम ॥८४॥ कहीं कही है द्रव्य की दोइ भांति परजाय । नित्यभूत तद्रूप इक दुतिय अनित्य बताय ।। ८५ ।। नित्यभूत को गुन कहैं दुतिय अनित्य विभेद । २. वही, पृष्ठ- १५० १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ- १४९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy