SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९८ प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार धर्म के लिए बाह्यसामग्री की जरूरत नहीं होती-स्वयं का आत्मा ही साधन है। प्रत्येक आत्मा और परमाणु में अनन्त शक्ति विद्यमान है, जिससे वह स्वयं ही, अपना कार्य करने में समर्थ है। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण - ये छह कारक स्वयं अंतरस्वरूप के आधार से परिणमित होते हैं, जिसमें बाह्य सामग्री कुछ भी मदद नहीं करती।' आत्मा अपना कार्य स्वयं करता है। आत्मा स्वयं ज्ञानज्योति आनन्दमय शुद्ध है - ऐसे भानवाला आत्मा स्वयं कार्य करता है; जो स्वयं, अपने केवलज्ञानादि कार्य से अभिन्न है। अपनी चैतन्यज्योति में एकाग्र होने से जो शुद्धदशा होती है; उससे आत्मा भिन्न नहीं है। इसलिए आत्मा स्वयं कर्म है। आत्मा स्वयं अनन्तशक्ति सम्पन्न है, जिसका स्वयं अपना बदलने का स्वभाव है। यदि आत्मा सर्वथा कूटस्थ हो तो विविधप्रकार के कार्य नहीं हो सकते और आनन्द का अनुभव भी नहीं हो सकेगा। अत: स्वयं ही परिणमन के स्वभाववाला होने से स्वयं ही केवलज्ञान का साधन है, जिसे वज्रवृषभनाराच संहनन की अपेक्षा नहीं है। यह समझकर निमित्त और विभाव की अपेक्षा छोड़कर, आत्मा अपना साधन स्वयं करता है, जिसमें बाहर के साधन की अपेक्षा नहीं होती। निचलीदशा में भी सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र प्रगट होने में स्वयं ही साधन है। स्वयं केवलज्ञान अपने लिए प्रगट करके अपने में रखता है; इसीलिए आत्मा स्वयं सम्प्रदान है। अपूर्णज्ञान के नाश होने पर भी, स्वयं ध्रुवरूप रहकर केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिए स्वयं अपादान है और स्वयं अपने ही आधार से केवलज्ञान प्रगट करता है, इसलिए स्वयं अधिकरण गाथा-१६ है। यदि शरीर मजबूत हो, स्वस्थ हो तो ध्यान होता है - ऐसा है ही नहीं। मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यय - इन चार अपूर्णज्ञान का नाश होकर, केवलज्ञान की पूर्णदशा का उत्पाद हुआ है और आत्मा स्वयं ध्रुव रहा है। इसतरह स्वयं छह कारकोंरूप होने से आत्मा स्वयंभू कहलाता है।" उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक आत्मा स्वभाव से भगवान है और उसमें पर्याय में भगवान बनने की सामर्थ्य है। काललब्धि आने पर सम्पूर्ण जगत से दृष्टि समेटकर अपने त्रिकालीध्रुव भगवान आत्मा का अनुभव कर, उसमें अपनापन स्थापित कर, उसे ही निजरूप जानकर, उसमें ही जम-रमकर जब यह आत्मा शुद्धोपयोगरूप परिणमित होता है; तब पर्याय में भी परमात्मा बन जाता है। यहाँ प्रदर्शित निश्चयषट्कारक की प्रकिया यह बताती है कि इस आत्मा को पर्याय में परमात्मा बनने के लिए पर के सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। यह भगवान आत्मा स्वयं ही कर्ता होकर शुद्धोपयोगरूप परिणमित होता है, स्वयं ही शुद्धोपयोगरूप कर्म (कार्य) को प्राप्त करता है, यह सब प्रक्रिया स्वयं के साधन से सम्पन्न होती है और यह सबकुछ स्वयं के लिए, स्वयं में से, स्वयं के आधार से ही होता है। जब भी ‘पर के सहयोग की आवश्यकता नहीं हैं' - यह कहा जाता है तो कुछ लोग ऐसा कहने लगते हैं कि हमे आप सबमें से किसी के सहयोग की आवश्यकता नहीं है; पर यह नहीं समझते कि आखिर यह शरीर भी पर है; इसके माध्यम से सम्पन्न होनेवाली क्रिया भी तो अपनी नहीं है। भोजनादि नहीं करनेरूप उपवासादि व ईर्या-भाषा समिति की देहगत क्रिया भी पर की क्रिया है। परमात्मा बनने में, शुद्धोपयोग प्राप्त करने में इनका भी तो कोई योगदान नहीं है। १.दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१३२ २.वही, पृष्ठ-१३२-१३३ १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१३४
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy