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________________ गाथा-१५ ८८ प्रवचनसार अनुशीलन ___ "स्वभाव के अवलम्बन से जिस शुद्धता का अंश प्रगट हुआ है, उसी से केवलज्ञान प्रगट होता है । जैसे संकुचित कली खिलती है; वैसे ही परमस्वभाव जो शक्तिरूप से था और जिसकी वर्तमान पर्याय संकुचित थी, वह अब पूर्ण स्वभाव के बल से खिल जाती है। श्रद्धा-ज्ञान-चारित्र तथा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञानरूप अपूर्ण विकास खिला हुआ था; किन्तु यह तो पूर्णदशा प्रगट हो गई है। सर्वप्रथम, ज्ञानस्वभाव की दृष्टि-ज्ञानपूर्वक स्थिरता से चारित्रदशा को प्राप्त करते हैं, उसमें विशेष स्थिरता से शुक्ल ध्यान प्रगट होता है। सम्पूर्ण स्व-आश्रय से वे केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं। आत्मा की श्रद्धा करके स्थिरता के अंश बढ़ते जाते हैं और पूर्ण वीतरागदशा प्राप्त करके आत्मा स्वयमेव केवलज्ञान को प्राप्त होता है। यहाँ, 'स्वयमेव' शब्द का प्रयोग किया गया है, किन्तु वज्रकाय की बात नहीं की। जितने ज्ञेय हैं, उन सभी को केवलज्ञान जानता है। ज्ञात होने योग्य सभी पदार्थों को केवलज्ञान जानता है। अधूरीदशा में विकल्प आता है; किन्तु विकल्प के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र अथवा शुक्ल ध्यान प्रगट नहीं होता । आत्मसन्मुखदशा एक ही कारण है। विभाव और निमित्त से भेदज्ञान किया है, स्वभावसन्मुखता हुई है। स्वभाव सन्मुख होते ही वे केवलज्ञान को प्राप्त होते हैं। यहाँ ऐसा कहा कि आत्मा ज्ञानस्वभावी है और ज्ञान, ज्ञेयप्रमाण है। राग को करना, व्यवहार को करना और व्यवहार को छोड़ना उसका स्वभाव नहीं है; इसीतरह निमित्त को लाना और छोड़ना भी उसका स्वभाव नहीं है, केवलज्ञानी की एक समय में अनन्तशक्ति है, अनन्त लोकालोक को जान लेने की शक्ति है; किन्तु ज्ञान, ज्ञेयप्रमाण है - ऐसा कहने का अर्थ यह है कि ज्ञान सभी ज्ञेयों को जान लेता है, कोई बाकी नहीं रहता। प्रत्येक समय में तीनों काल का, छहों द्रव्यों का स्वरूप पूरी तरह से केवलज्ञान जानता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१०४-१०५ जब, स्थूल बुद्धिवाले ज्योतिष-ज्ञानी भी भविष्य की अमुक बातों को निश्चितपने जानते हैं तोसर्वप्रकार से निर्मल केवलज्ञानी भविष्य को निश्चित रूप से क्यों नहीं जानेंगे? अत: जितने भी ज्ञेय हैं, उन सभी को वे जानते हैं।' ज्ञान ज्ञेयों में प्रविष्ट नहीं होता; किन्तु लोकालोक को जान लेता है। ऐसे ज्ञानस्वभाववाले आत्मा को आत्मा, शुद्ध उपयोग के प्रसाद से ही प्राप्त करता है, यह सम्यक् एकान्त है। शुभ राग अथवा व्यवहार से किसी को केवलज्ञान हो जाए और किसी को स्वद्रव्य के आलम्बनरूप निश्चय से भी केवलज्ञान हो जाए - ऐसा अनेकान्त का स्वरूप नहीं है; किन्तु यह नियम है कि शुद्धोपयोग के प्रसाद से ही सम्यक्त्व, चारित्र और केवलज्ञान प्राप्त होता है। ___ आत्मा केवलज्ञानमय शुद्ध चैतन्य मूर्ति है, उसकी दृष्टि, ज्ञान और रमणता से ही जीव केवलज्ञान प्राप्त करता है; किन्तु किसी निमित्त अथवा व्यवहार से उसकी प्राप्ति नहीं हो सकती।" उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि केवलज्ञान की प्राप्ति का एकमात्र कारण शुद्धोपयोग है; न तो कोई बाह्य क्रियाकाण्ड है और न शुभोपयोगरूप पुण्यभाव ही है। इसप्रकार तेरहवीं गाथा में यह बताया कि शुद्धोपयोग से अतीन्द्रिय अनन्त सुख प्राप्त होता है और यहाँ इस पन्द्रहवीं गाथा में यह बताया कि उसी शुद्धोपयोग से अतीन्द्रिय अनंतज्ञान प्रगट होता है। ___ अनंत अतीन्द्रियज्ञान और अनंत अतीन्द्रियसुख - दोनों एकमात्र शुद्धोपयोग के फल हैं; इसलिए उन्हें प्राप्त करने की भावनावाले भव्यजीवों को एकमात्र निज भगवान आत्मा की आराधना करना ही उपादेय है; अन्य बाह्य विकल्पों में उलझने से कोई लाभ नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-१०६-१०७ २. वही, पृष्ठ-१०७
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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