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प्रवचनसार अनुशीलन उत्पन्न मोह-राग-द्वेष भावों से भिन्नता की उत्कृष्ट भावना से निर्विकारी आत्मस्वरूप को प्रगट करने से जो विगतराग हैं अर्थात् वीतराग हैं; परमकला के अवलोकन के कारण साता-असाता वेदनीय के विपाक से उत्पन्न होनेवाले सुख-दु:खजनित परिणामों की विषमता का अनुभव नहीं होने से जो सांसारिकसुख और दुःखों के प्रति समानभाव रखनेवाले हैं, समसुख-दुःख हैं - ऐसे श्रमणों को शुद्धोपयोगी कहते हैं।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में तत्त्वप्रदीपिका से बंधकर ही चलते रहे हैं; तथापि इस गाथा में शुद्धोपयोगी मुनिराज के जो विशेषण दिये गये हैं; उनकी व्याख्या निश्चय-व्यवहार की संधिपूर्वक प्रस्तुत करते हैं।
दूसरी विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि सुविदिदपयत्थसुत्तो की व्याख्या में निजशुद्धात्मा पर बल देते हुए लिखते हैं कि जो निजशुद्धात्मादि पदार्थों और उनका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रों को संशयादि रहित जानते है; उन्हें सुविदितपदार्थसूत्र कहते हैं।
इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी एक मनहरण कवित्त और तीन दोहे - कुल चार छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(मनहरण कवित्त) शुद्ध उपयोग जुक्त जति जे विराजत हैं।
सुनो तासु लच्छन विचच्छन बुधारसी।। भलीभांति जानत यथारथ पदारथ को।
तथा श्रुतसिंधु मथि धारत सुधारसी ।। संजम सों मंडित तपोनिधान पंडित हैं।
राग-दोष खंडिकें बिहंडत सुधारसी ।। जाके सुख-दुख में न हर्ष-विषाद वृन्द ।
सोई पर्म धर्म धार धीर मो उधारसी ॥४६।। हे बुद्धिमान पुरुषो ! जो मुनिराज शुद्धोपयोग से युक्त होकर विराजते
गाथा-१४
____८१ हैं, उनके विचक्षण लक्षणों को ध्यान से सुनो। वे बुद्धिमान मुनिराज शास्त्ररूपी सागर का मंथन करके उसके अमृत को धारण करते हुए सम्पूर्ण पदार्थों के स्वरूप को यथार्थरूप से भलीभांति जानते हैं।
वे महाविद्वान तप के निधान और संयम से मंडित होते हैं और मूढ़ता को नाशकर राग-द्वेष को खण्डित करनेवाले होते हैं।
उनके न तो सांसारिक सुख में हर्ष होता है और दुख में विषाद होता है - ऐसे मुनिराज ही परमधर्म धारक धीर-वीर होते हैं।
(दोहा) जो मुनि सुपरविभेद धरि करे शुद्ध सरधान । निजस्वरूप आचरन में गाडै अचल निशान ।।४७।। सकल सूत्र सिद्धान्त को भलीभांति रस लेत । तप संजम साधै सुधी राग दोष तजि देत ।।४८।। जिवन मरण विर्षे नहीं जाके हरष विषाद ।
शुद्धपयोगी साधु सो रहित सकल अपवाद ।।४९।। जो मुनिराज स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक शुद्ध श्रद्धान को धारण करते हैं और निजस्वरूप में आचरण करते हैं, लीन होते हैं; वे मुनिराज धर्मध्वज को अचल रूप से स्थापित करते हैं।
वे मुनिराज सिद्धान्त के प्रतिपादक सम्पूर्ण सूत्रों का रस भलीभांति लेते हैं, तात्पर्य यह है कि रस ले-ले कर सिद्धान्त सूत्रों का अध्ययन करते हैं तथा वे महाबुद्धिमान मुनिराज संयम को धारण करते हैं, तप को तपते हैं और राग-द्वेष को छोड़ देते हैं।
जिन मुनिराजों के जीवन में हर्ष और मृत्यु में विषाद नहीं होता; वे ही सम्पूर्ण अपवादों को छोड़कर शुद्धोपयोगी साधु होते हैं।
उक्त गाथा के भाव को स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “यहाँ शुद्धोपयोगरूप परिणमित हुए आत्मा का स्वरूप कहते हैं। पुण्य-पाप से हटकर, स्वभावसन्मुख सावधानी को शुद्धोपयोग