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प्रवचनसार अनुशीलन इसप्रकार वस्तु द्रव्य-गुण-पर्यायमय होने से वही उत्पन्न होती है, उसी का विनाश होता है और वही ध्रौव्य रहती है; इसी से उसमें क्रिया (परिणाम) हुआ ही करती है। इसलिए शुभ, अशुभ और शुद्ध परिणाम
आत्मवस्तु का स्वभाव ही है। ___पुण्य-पाप कषाय और घोर हिंसारूप पाप के परिणाम, वे आत्मा के परिणाम होने से वस्तु का स्वभाव है, उसे जड़कर्म परिणमन करानेवाला नहीं है। जीव ही तीन प्रकार के परिणाम करता है; अन्य तो निमित्त मात्र हैं।"
स्वामीजी के उक्त उद्धरणों पर गहराई से दृष्टि डालने पर एक बात हाथ पर रखे आंवले के समान स्पष्ट हो जाती है कि पर और पर्याय से भिन्न, दृष्टि के विषयभूत, भगवान आत्मा का स्वरूप डंके की चोट इस युग में प्रस्तुत करनेवाले आध्यात्मिकसत्पुरुष श्रीकानजी स्वामी भी इस प्रकरण पर व्याख्यान करते समय अत्यन्त जोर देकर कहते हैं कि गुण, गुणी के बिना नहीं होते; परिणाम, परिणामी के बिना नहीं होते अर्थात् गुण-गुणी और परिणाम-परिणामी पृथक्-पृथक् नहीं होते, अभिन्न ही होते हैं।
गधे के सींग की अवस्था नहीं है तो सींग भी नहीं है । गोरस हो और दूध, दही आदि कोई परिणाम न हो - ऐसा कभी नहीं होता।
वे तो यहाँ तक लिखते हैं कि अवस्था के बिना वस्तु नहीं होती और वस्तु के बिना परिणाम नहीं होते । इन दोनों बातों को जो बराबर समझे उसने तीर्थंकर भगवान की वाणी के सार को समझ लिया। • १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-८७
अपने को नहीं पहचानना ही सबसे बड़ी भूल है तथा अपना सही स्वरूप समझना ही अपनी भूल सुधारना है।
- तीर्थं. महा. और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-८४
प्रवचनसार गाथा-११ विगत गाथा में यह कहा था कि पर्याय के बिना पदार्थ नहीं होता और पदार्थ के बिना पर्याय नहीं होती।
अब इस ११ वीं गाथा में यह कहा जा रहा है कि शुद्धोपयोगरूप पर्याय से परिणमित आत्मा मुक्ति प्राप्त करते हैं और शुभोपयोगरूप पर्याय से परिणमित आत्मा स्वर्गादि को प्राप्त करते हैं। मूल गाथा इसप्रकार है - धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपयोगजुदो । पावदि णिव्वाणसुहं सुहोवजुत्तो य सग्गसुहं ।।११।।
(हरिगीत) प्राप्त करते मोक्षसुख शुद्धोपयोगी आतमा ।
पर प्राप्त करते स्वर्गसुख हि शुभोपयोगी आतमा ।।११।। धर्मरूप परिणमित आत्मा यदि शुद्धोपयोग से युक्त हो तो मोक्षसुख को प्राप्त करता है और यदि शुभोपयोग से युक्त हो तो स्वर्गसुख को प्राप्त करता है।
उक्त गाथा की उत्थानिका में आचार्य जयसेन तो मात्र इतना ही लिखते हैं कि वीतराग और सराग चारित्र है नाम जिनका - ऐसे शुद्धोपयोग और शुभोपयोग का फल बताते हैं; किन्तु आचार्य अमृतचन्द्र शुभोपयोग के त्याग के लिए और शुद्धोपयोग के ग्रहण के लिए उनके फल के संबंध में गंभीरता से विचार करते हैं - ऐसा लिखते हैं। ___ आचार्य अमृतचन्द्र अपने उक्त अभिप्राय को टीका में विस्तार से स्पष्ट करते हैं; जो मूलत: इसप्रकार है -
"जब यह धर्मपरिणत स्वभाववाला आत्मा शुद्धोपयोग परिणति को धारण करता है, तब विरोधी शक्ति से रहित होने के कारण अपना