SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४ गाथा-७ प्रवचनसार अनुशीलन स्वसमय में प्रवृत्ति करना है। वस्तु का स्वभाव होने से यही धर्म है और शुद्धचैतन्य का प्रकाश होना - इसका अर्थ है। यही यथावस्थित आत्मगुण होने से साम्य है। वह साम्य दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के उदय से उत्पन्न होनेवाले समस्त मोह और क्षोभ के अभाव के कारण अत्यन्त निर्विकारी - ऐसा जीव का परिणाम है।" उक्त कथन में ध्यान देने की बात यह है कि चाहे सराग चारित्र हो चाहे वीतराग चारित्र, पर होगा तो वह नियम से जीव का परिणाम ही; वह देह की क्रियारूप नहीं हो सकता, वह जड़ की क्रियारूप नहीं हो सकता। हमें आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि हम जिस क्रिया को चारित्र मान रहे हैं; क्या वह जीव का परिणाम है? यदि वह देह की क्रिया जीव का परिणाम नहीं है तो वह न तो सरागचारित्र होगी और न वीतराग चारित्र; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित वीतराग-परिणाम को वीतराग चारित्र कहते हैं और सम्यग्दर्शन-ज्ञान सहित शुभभाव को सरागचारित्र कहते हैं। दूसरी बात यह है कि यहाँ जिस चारित्र की बात चल रही है, वह न तो द्रव्यरूप ही है और न गुणरूप ही; वह तो नियम से पर्यायरूप ही है, परिणामरूप ही है; क्योंकि यहाँ अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि मोह और क्षोभ से रहित जीव का परिणाम ही चारित्र है। अरे भाई! न तो देह की क्रियारूप, जड़ की क्रियारूप बाह्य क्रियाकाण्ड का नाम चारित्र है और न वह द्रव्य या गुणरूप है; अपितु आत्मा के आश्रय से उत्पन्न हुआ जीव का वीतरागी परिणाम ही चारित्र है, वही धर्म है । इस गाथा का एकमात्र यही भाव है। टीका में भी साफ-साफ लिखा है कि स्वरूप में चरण करना ही चारित्र है। स्वरूप में चरण करने का तात्पर्य स्वसमय अर्थात् निज भगवान आत्मा में प्रवृत्ति करना है; उसी को निजरूप जानना-मानना और उसी में जमना रमना है। इसप्रकार का चारित्र ही वास्तविक धर्म है, निश्चयधर्म है, शुभभावरूप सरागचारित्र को व्यवहार धर्म कहते हैं, निश्चय से नहीं। तात्पर्यवृत्ति में भी उक्त गाथा का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका के समान ही है; तथापि 'सम' शब्द का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका में 'साम्य' किया गया है और तात्पर्यवृत्ति में 'शम' किया है। __ आचार्य अमृतचन्द्र यथावस्थित दशा की अपेक्षा 'सम' को 'साम्य' कहते हैं और आचार्य जयसेन विकारी भावों के शमन की अपेक्षा 'सम' को शम कहते हैं। यह कोई मतभेद नहीं है, अपितु मात्र व्याख्याभेद ही है। इस गाथा का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "स्वयं का और पर का स्वरूप क्या है ? सर्वप्रथम उसे यथार्थरूप से जानना चाहिए। मेरा स्वरूप मेरे में है और पर का स्वरूप पर में है। पुण्यपाप विभाव है, वह मेरा स्वरूप नहीं; इसलिए वह मुझे मददगार नहीं है। 'मैं शुद्ध चिदानन्द हूँ, इसमें रमण करना ही चारित्र है।' इस गाथा में चारित्र का अर्थ करते हैं। स्वसमय अर्थात् अपना आत्मपदार्थ - शुद्ध चिदानन्द में एकाग्र होनेरूप प्रवृत्ति करना वह चारित्र का अर्थ है। पर की प्रवृत्ति आत्मा नहीं कर सकता तथा पुण्य-पापरूप प्रवृत्ति भी आत्मा की प्रवृत्ति नहीं है। तथा कोई कहता है कि अहिंसा के प्रभाव के कारण पास में आया हुआ हिंसक जीव भी शान्त हो जाता है, बैर को त्याग देता है तो यह बात भी असत्य है; क्योंकि अहिंसा का प्रभाव दूसरों के ऊपर नहीं होता। स्वभाव में लीनता होने पर अपने में बैर का नाश होता है । मुनि को सर्प काट लेता है, बाघ फाड़कर खा जाता है; फिर भी अन्तर में परिपूर्ण अहिंसा है। __ सिंह मुनि के शरीर को खा जाय तो उससे मुनि का अहिंसामय चारित्र १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-४८ २. वही, पृष्ठ-४९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy