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________________ ४३२ प्रवचनसार अनुशीलन गाथा-९२ ४३३ जाता है। इसलिए हम सबका यही एकमात्र कर्तव्य है कि हम सब आगम का अभ्यास करें; जिससे हम सबको भी आत्मोपलब्धि और शुद्धोपयोग प्राप्त हो और हम भी धर्ममय हो जावें, धर्मात्मा हो जावें। ___ आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसके बाद दो मन्दाक्रान्ता छन्द प्राप्त होते हैं। प्रथम छन्द में शुद्धोपयोग का फल निरूपित है और दूसरा छन्द ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार और ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन महाधिकार के बीच की संधि को बताता है। वे दोनों छन्द मूलत: इसप्रकार हैं - (मन्दाक्रान्ता) आत्मा धर्मः स्वयमिति भवन् प्राप्य शुद्धोपयोगं नित्यानन्दप्रसरसरसे ज्ञानतत्त्वे निलीय । प्राप्स्यत्युच्चैरविचलतया निष्प्रकम्पप्रकाशां स्फूर्जज्योतिःसहजविलसद्रत्नदीपस्य लक्ष्मीम् ।।५।। (मनहरण ) विलीन मोह-राग-द्वेष मेघ चहुं ओर के, चेतना के गुणगण कहाँ तक बखानिये । अविचल जोत निष्कंप रत्नदीप सम, विलसत सहजानन्द मय जानिये ।। नित्य आनंद के प्रशमरस में मगन, शुद्ध उपयोग का महत्त्व पहिचानिये। नित्य ज्ञानतत्त्व में विलीन यह आतमा, स्वयं धर्मरूप परिणत पहिचानिये ।। इसप्रकार शुद्धोपयोग को प्राप्त करके यह आत्मा स्वयं धर्मरूप परिणमित होता हुआ नित्यानंद के प्रसार से सरस आत्मतत्त्व में लीन होकर, अत्यन्त अविचलता के कारण दैदीप्यमान ज्योतिर्मय और सहजरूप से विलसित स्वभाव से प्रकाशित रत्नदीपक की भाँति निष्कंप प्रकाशमय शोभा को प्राप्त करता है। घी या तेल से जलनेवाले दीपक की लों वायु के संचरण से कांपती रहती है और यदि वायु थोड़ी-बहुत भी तेज चले तो बुझ जाती है; परन्तु रत्नदीपक में न तो घी या तेल की जरूरत है और न वह वायु के प्रचंड वेग से काँपता ही है। जब वह कांपता भी नहीं तो फिर बुझने का प्रश्न नहीं उठता। यही कारण है कि यहाँ ज्ञानानन्दज्योति की उपमा रत्नदीपक से दी गई है। क्षायोपशमिक ज्ञान और आनन्द तेल के दीपक के समान अस्थिर रहते हैं, अनित्य होते हैं और क्षणभंगुर होते हैं; किन्तु क्षायिकज्ञान और क्षायिक आनन्द रत्नदीपक के समान अकंप चिरस्थाई होते हैं। शुद्धोपयोग के प्रसार से होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान और अतीन्द्रियसुख अकंप चिरस्थाई होने से परम उपादेय हैं। निश्चित्यात्मन्यधिकृतमिति ज्ञानतत्त्वं यथावत् तत्सिद्धयर्थं प्रशमविषयं ज्ञेयतत्त्वं बुभुत्सुः । सर्वानर्थान् कलयति गुणद्रव्यपर्याययुक्त्या प्रादुर्भूति न भवति यथा जातु मोहांकुरस्य ।।६।। (मनहरण) आतमा में विद्यमान ज्ञानतत्त्व पहिचान, पूर्णज्ञान प्राप्त करने के शुद्धभाव से। ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन के उपरान्त अब, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन करते हैं चाव से ।। सामान्य और असामान्य ज्ञेयतत्त्व सब, जानने के लिए द्रव्य गुण पर्याय से । मोह अंकुर उत्पन्न न हो इसलिए, ज्ञेय का स्वरूप बतलाते विस्तार से ।। आत्मा के आश्रित रहनेवाले ज्ञानतत्त्व का इसप्रकार यथार्थतया निश्चय करके, उसकी सिद्धि के लिए, केवलज्ञान प्रगट करने के लिए
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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