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________________ ૪ર प्रवचनसार गाथा-९१ विगत गाथा में यह कहा गया था कि स्व-पर का विवेक धारण करनेवालों को मोहांकुर उत्पन्न नहीं होता; इसलिए हमें भेदविज्ञानपूर्वक स्व-पर को जानने में पूरी शक्ति लगा देना चाहिए। ___ अब इस गाथा में यह कहा जा रहा है कि जिस श्रमण को ऐसा भेदविज्ञान नहीं है, वह श्रमण श्रमण ही नहीं है, श्रमणाभास है। सत्तासंबद्धेदे सविसेसे जो हि व सामण्णे । सद्दहदि ण सो समणो सत्तो धम्मो ण संभवदि ।।११।। (हरिगीत) द्रव्य जो सविशेष सत्तामयी उसकी दृष्टि ना। तो श्रमण हो पर उस श्रमण से धर्म का उद्भव नहीं ।।११।। जो जीव श्रमण अवस्था में इन सत्तासहित सविशेष पदार्थों की श्रद्धा नहीं करता; वह श्रमण श्रमण नहीं है, उससे धर्म का उद्भव नहीं होता। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "सादृश्यास्तित्व से समानता को धारण करते हुए भी स्वरूपास्तित्व से विशेषता से युक्त द्रव्यों को स्व-पर के भेदविज्ञानपूर्वक न जानता हुआ, न श्रद्धा करता हुआ जो जीव मात्र श्रमणता (द्रव्यमुनित्व) से आत्मा का दमन करता है; वह वास्तव में श्रमण नहीं है। जिसे रेत और स्वर्णकणों का अन्तर ज्ञात नहीं है, उस धूल को धोनेवाले पुरुष को जिसप्रकार स्वर्णलाभ नहीं होता; उसीप्रकार उक्त श्रमणाभासों में से निरुपराग आत्मतत्त्व की उपलब्धि लक्षणवाले धर्म का उद्भव नहीं होता, धर्मलाभ प्राप्त नहीं होता।” आचार्य जयसेन ने इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए भी नया कुछ भी नहीं कहा है। गाथा-९१ कविवर वृन्दावनदासजी भी इस गाथा के भाव को तीन छन्दों में प्रस्तुत करते हुए सोदाहरण वही बात कह देते हैं; जो तत्त्वप्रदीपिका में कही गई है। नमूने के तौर पर उनमें से एक छन्द इसप्रकार है - (नरेन्द्र) यों सामान्य-विशेष-भावजुत दरवनि को नहिं जाने। स्वपरभेदविज्ञान विना तब निजनिधि क्यों पहिचाने। तो सम्यक्त भाव बिन केवल दरवलिंग को धारी। तप-संजमकरि खेदित हो है बरै नाहिं शिवनारी ।।५४।। जो व्यक्ति सामान्य-विशेषात्मक द्रव्यों को नहीं जानता है; वह व्यक्ति स्व-पर भेदविज्ञान के बिना अपनी निधि अर्थात् निज भगवान आत्मा को कैसे जान सकता है ? इसप्रकार निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र से रहित वह श्रमण केवल द्रव्यलिंग धारी ही है। वह जिनागमकथित संयम को धारण कर व अनेकप्रकार के उग्र तपों को तपकर खेदखिन्न ही होनेवाला है; क्योंकि उसे शिवनारी की प्राप्ति नहीं होगी अर्थात् उसे मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। __आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "त्रिलोकीनाथ सर्वज्ञदेवकथित पदार्थों की श्रद्धा बिना स्वसन्मुखतारूप धर्म का लाभ नहीं होता। सर्वज्ञकथित आप्त, आगम और पदार्थ का स्वरूप जाने बिना तथा मिथ्यामतपक्ष के तत्त्व की श्रद्धा छोड़े बिना शुद्धात्म अनुभवरूप धर्म की प्राप्ति होती ही नहीं - ऐसा न्यायपूर्वक गाथा ९१ द्वारा विचार करते हैं। जो जीव नग्न दिगम्बर होकर २८ मूलगुण सहित द्रव्यमुनिपना पालन १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३१४
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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