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प्रवचनसार गाथा ८८-८९ विगत गाथाओं में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि जिनेन्द्रकथित द्रव्य-गुण-पर्याय के ज्ञान बिना मोह का नाश संभव नहीं है; अत: द्रव्यगुण-पर्याय का ज्ञान करने के लिए जिनेन्द्रकथित शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए।
अब इन गाथाओं में यह बताया जा रहा है कि जिनेश्वर के उपदेश की प्राप्ति होने पर पुरुषार्थ कार्यकारी है; इसकारण जो जिनेश्वरदेव के उपदेशानुसार पुरुषार्थ करता है; मोह को नाश करनेवाला वह अल्पकाल में ही सभीप्रकार के दुखों से मुक्त हो जाता है। गाथायें मूलत: इसप्रकार हैं - जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ।।८८।। णाणप्पगमप्पाणं परं च दव्वत्तणाहिसंबद्धं । जाणदिजदि णिच्छयदो जो सो मोहक्खयं कुणदि ।।८९।।
(हरिगीत) जिनदेव का उपदेश यह जो हने मोहरु क्षोभ को। वह बहुत थोड़े काल में ही सब दुखों से मुक्त हो ।।८८।। जो जानता ज्ञानात्मक निजरूप अर परद्रव्य को। वह नियम से ही क्षय करे दृगमोह एवं क्षोभ को ।।८९।। जो जिनेन्द्र के उपदेश को प्राप्त कर मोह-राग-द्वेष का नाश करता है; वह अल्पकाल में ही सर्व दुखों से मुक्त हो जाता है।
जो निश्चय से ज्ञानात्मक निज को और पर को, निज-निज द्रव्यत्व से संबंद्ध (संयुक्त) जानता है; वह मोह का क्षय करता है।
आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
गाथा-८८-८९
"जिसप्रकार तीक्ष्णतलवारधारी मनुष्य तलवार से शत्रुओं पर अत्यन्त वेग से प्रहार करे, तभी तत्संबंधी दुखों से मुक्त होता है, अन्यथा नहीं; उसीप्रकार अतिदीर्घ उत्पातमय संसारमार्ग में किसी भी प्रकार से जिनेन्द्रदेव के अतितीक्ष्ण असिधारा के समान उपदेश को प्राप्त कर जो पुरुष मोहराग-द्वेष पर अति दृढ़तापूर्वक प्रहार करता है, वही शीघ्र सब दुखों से मुक्त होता है; अन्य कोई व्यापार (प्रयत्न-क्रियाकाण्ड) समस्त दुखों से मुक्त नहीं करता।
इसलिए मैं मोह का क्षय करने के लिए सम्पूर्ण आरंभ से, प्रयत्न से पुरुषार्थ का आश्रय ग्रहण करता हूँ।
जो निश्चय से अपने को अपने चैतन्यात्मक द्रव्यत्व से संबंद्ध और पर को पर के यथायोग्य द्रव्य से संबंद्ध ही जानता है; सम्यक्प्रकार से स्वपर विवेक को प्राप्त वह पुरुष सम्पूर्ण मोह का क्षय करता है। इसलिए मैं स्व-पर के विवेक के लिए प्रयत्नशील हूँ।"
आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करने में आचार्य अमृतचन्द्र का ही अनुसरण करते हैं।
कविवर वृन्दावनदासजी इन दो गाथाओं का भाव दो छन्दों में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं -
(षट्पद) जो जन श्रीजिनराजकथित उपदेश पाय करि। मोह राग अरु द्वेष इन्हें घातै उपाय धरि ।। सो जन उद्यमवान बहुत थोरे दिनमाहीं।
सकल दुःखसों मुक्त होय भवि शिवपुर जाहीं ।। या जिनशासन कथन का सार सुधारस पीजिए।
वृन्दावन ज्ञानानंदपद ज्यों उतावली लीजिए।।४५।। जो व्यक्ति जिनेन्द्र भगवान के उपदेश को प्राप्त करके मोह-राग-द्वेष को उपाय से घातता है; वह उद्यमवान भव्य पुरुष बहुत थोड़े दिनों में