SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गाथा-८७ ४१० प्रवचनसार अनुशीलन हैं और जो द्रव्यों को क्रमपरिणाम से प्राप्त करते हैं या द्रव्यों के द्वारा क्रमपरिणाम से प्राप्त किये जाते हैं, वे अर्थ पर्याय हैं। जिसप्रकार सोनारूप द्रव्य पीलेपन आदिगुणों और कुण्डलादि पर्यायों को प्राप्त करता है अथवा उनके द्वारा प्राप्त किया जाता है; इसलिए सोना द्रव्य अर्थ है। जिसप्रकार पीलापन आदि गुण सोने को आश्रय के रूप में प्राप्त करते हैं अथवा सोने द्वारा प्राप्त किये जाते हैं; इसलिए पीलापन आदि गुण अर्थ हैं। जिसप्रकार कुण्डलादि पर्यायें सोने को क्रमपरिणाम से प्राप्त करती हैं अथवा सोने द्वारा क्रमपरिणाम से प्राप्त की जाती हैं; इसलिए कुण्डलादि पर्यायें अर्थ हैं। इसीप्रकार अन्यत्र सभी जगह घटित कर लेना चाहिए। जिसप्रकार पीलापन अदि गुण और कुण्डलादि की सोने से अभिन्नता होने से उनका सोना ही आत्मा है; उसीप्रकार उन द्रव्य-गुण-पर्यायों में गुणपर्यायों से अभिन्नता होने से उनका द्रव्य ही आत्मा (सर्वस्व-स्वरूप) है।" आचार्य जयसेन भी तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं। यहाँ ध्यान देने की विशेष बात यह है कि यहाँ द्रव्य, गुण और पर्याय तीनों को ही अर्थ कहा गया है। द्रव्य को गुण-पर्यायात्मक और गुणों और पर्यायों को द्रव्यात्मक कहा गया है, अभेद, अभिन्न कहा गया है। इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी दो मनहरण कवित्त और एक दोहे के माध्यम से प्रस्तुत करते हैं; जिसमें दूसरा कवित्त और दोहा इसप्रकार है (मनहरण) द्रव्य गुन पर्ज को कहावत अरथ नाम, तहाँ गुन पर्ज करै द्रव्य में गमन है। तथा द्रव्य निज गुनपर्ज में गमन करे, ऐसे 'अर्थ' नाम इन तीनों को अमन है।। जैसे हेम निज गुन पर्ज में रमन करै, गुन परजाय करें हेम में रमन है । ऐसो भेदाभेद निजआतम में जानो वृन्द, स्याद्वाद सिद्धांत में दोष को दमन है ।।४३।। द्रव्य, गुण और पर्याय - इन तीनों को ही अर्थ कहा जाता है। गुण और पर्यायें द्रव्य को प्राप्त होती हैं और द्रव्य गुण-पर्यायों को प्राप्त होता है। इसप्रकार इन तीनों का अर्थ नाम सार्थक है। जिसप्रकार सोना अपने गुण-पर्यायों में रमण करता है और उसके गुण-पर्याय सोने में रमण करते हैं। इसीप्रकार का भेदाभेद अपने आत्मा में भी लागू होता है; क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में कोई दोष नहीं आता। (दोहा) यातें जिन सिद्धांत को, करो भले अभ्यास । मिटै मोहमल मूलतें, होय शुद्ध परकास ।।४४।। इसलिए जिनेन्द्रकथित सिद्धान्तों का भलीभाँति अभ्यास करना चाहिए; इससे मोहरूपी मैल का मूल से नाश होगा और शुद्धात्मा का प्रकाश प्रगट होगा। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा का अर्थ इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "भगवान ने जैसे पदार्थ देखे हैं, वैसा ही उनकी वाणी में आया है, उसका अभ्यास स्व-लक्ष्य से करे तो मोह दूर हुए बिना नहीं रहे।' द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों में भावभेद होने पर भी तीनों को 'अर्थ' - ऐसे एक ही नाम से कहा जाता है। द्रव्य अर्थात् शक्तिवान वस्तु, गुण १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-२६६
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy