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________________ प्रकाशकीय यह तो सर्वविदित ही है कि विगत २८ वर्षों में डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल आत्मधर्म और वीतराग - विज्ञान के सम्पादकीय लेखों के रूप में जो भी लिखा है; वह सब आज जिन-अध्यात्म की अमूल्य निधि बन गया है, पुस्तकाकार प्रकाशित होकर स्थाई साहित्य के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है। न केवल हिन्दी भाषा में उनके अनेक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं; अपितु गुजराती, मराठी, कन्नड़, तमिल, अंग्रेजी आदि अनेक भाषाओं में उनके अनुवाद हो चुके हैं तथा अनेकों बार प्रकाशित भी हो चुके हैं। इनमें परमभावप्रकाशक नयचक्र, समयसार अनुशीलन, धर्म के दशलक्षण, क्रमबद्धपर्याय, बारहभावना: एक अनुशीलन, चैतन्यचमत्कार, निमित्तोपादान, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव, शाश्वत तीर्थधामः सम्मेद शिखर, शाकाहार : जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में, आत्मा ही है शरण और गोम्मटेश्वर बाहुबली प्रमुख हैं और भी अनेक ग्रंथ आपने लिखे हैं। डॉ. भारिल्ल के द्वारा लिखित साहित्य की सूची अन्त में दी गई है। इन सब कृतियों ने जैनसमाज एवं हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान बनाया है । उनके लिखे साहित्य की अबतक आठ भाषाओं में चालीस लाख से अधिक प्रतियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। उन्होंने अबतक लगभग ७ हजार पृष्ठ लिखे हैं, जो लगभग सभी प्रकाशित हैं। लगभग १० हजार पृष्ठों का संपादन भी किया है। आज के बहुचर्चित और जैनदर्शन के महत्त्वपूर्ण लगभग सभी विषयों पर उन्होंने कलम चलाई है और उन्हें सर्वांगरूप से प्रस्तुत किया है। डॉ. भारिल्ल के साहित्य पर लिखित शोध-प्रबन्ध डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल : व्यक्तित्व एवं कृतित्व विषय पर सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ने डॉ. महावीरप्रसादजी जैन, टोकर (उदयपुर) को पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की है। अनेक छात्रों ने लघु शोध-प्रबंध भी लिखे हैं, जो राजस्थान विश्वविद्यालय में स्वीकृत हो चुके हैं एवं अनेक शोधार्थी अभी भी डॉ. भारिल्ल के साहित्य पर शोधकार्य कर रहे हैं। उनके साहित्य पर शोधकार्य करनेवाले छात्रों को डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल चैरिटेबल ट्रस्ट, मुम्बई द्वारा छात्रवृत्ति भी प्रदान की जाती है । इच्छुक व्यक्ति संपर्क कर सकते हैं। समयसार अनुशीलन की लोकप्रियता ने प्रवचनसार अनुशीलन लिखने को प्रेरित किया। अपनी रुचि एवं पाठकों की प्रेरणा प्राप्त होने पर वीतरागविज्ञान मासिक के संपादकीयों के रूप में प्रवचनसार अनुशीलन लिखना आरंभ हुआ। वीतराग - विज्ञान के मई, २००३ के अंक से जब प्रवचनसार अनुशीलन सम्पादकीय के रूप में प्रकाशन आरम्भ हुआ, तब ही से अनुकूल प्रतिक्रियायें आने लगीं और इन लेखों को पुस्तकाकार प्रकाशित करने की माँग भी आने लगी; वैसे तो हम उनके सभी सम्पादकीयों को पुस्तकाकार प्रकाशित करते ही आ रहे हैं, इन्हें भी करना ही था; पर जबतक प्रवचनसार ग्रंथ का एक महाधिकार पूर्ण नहीं हुआ, तबतक तो रुकना ही था । प्रवचनसार का विषय गूढ़, गंभीर एवं सूक्ष्म है। इसे समझने के लिए बौद्धिक पात्रता भी अधिक चाहिए। विशेष रुचि एवं खास लगन के बिना प्रवचनसार के विषय को समझना सहज नहीं है। अतः पाठकों को अधिक धैर्य रखते हुए इसका अध्ययन करना आवश्यक है। अब विदेश में २३ वर्षों से डॉ. भारिल्ल के द्वारा तत्त्वप्रचार होने से इस अनुशीलन का विदेशी पाठक भी लाभ लिए बिना नहीं रहेंगे । सुन्दर टाइपसैटिंग हेतु श्री दिनेश शास्त्री तथा ग्रंथ को आकर्षक कलेवर में प्रकाशित करने हेतु प्रकाशन विभाग के मैनेजर श्री अखिल बंसल भी धन्यवाद के पात्र हैं । इस ग्रन्थ के प्रस्तुत संस्करण की कीमत कम करने में जिन दातारों ने सहयोग दिया है, उनकी सूची अन्यत्र प्रकाशित की जा रही है; उन्हें भी ट्रस्ट की ओर से हार्दिक धन्यवाद ! सौभागमल पाटनी अध्यक्ष रवीन्द्र पाटनी फैमिली चैरिटेबल ट्रस्ट मुम्बई ब्र. यशपाल जैन, एम. ए. प्रकाशन मंत्री पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जयपुर
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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