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प्रवचनसार गाथा-८३-८४ विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि मोह-राग-द्वेष का अभाव कर ही अनन्तसुख की प्राप्ति की जा सकती है; अत: जिन्हें अनंतसुख की प्राप्ति करना है; वे अरहंत भगवान को द्रव्यत्व, गुणत्व और पर्यायत्व से जानकर, उसी के समान अपने आत्मा को जानकर मोह का नाश करें; क्योंकि मोह के नाश का एकमात्र यही उपाय है, अन्य उपयान्तर का अभाव है। ___ अब आगामी गाथाओं में मोह-राग-द्वेष का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उन्हें जड़मूल से उखाड़ फेंकने की प्रेरणा देते हैं।
गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं - दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्स हवदि मोहो त्ति । खुब्भदि तेणुच्छण्णो पप्पा रागं व दोसं वा ।।८३।। मोहेण व रागेण व दोसेण व परिणदस्स जीवस्स । जायदि विविहो बंधो तम्हा ते संखवइदव्वा ।।८४।।
(हरिगीत ) द्रव्यादि में जो मूढ़ता वह मोह उसके जोर से। कर राग-रुष परद्रव्य में जिय क्षुब्ध हो चहंओर से ।।८३।। बंध होता विविध मोहरु क्षोभ परिणत जीव के।
बस इसलिए सम्पूर्णत: वे नाश करने योग्य हैं ।।८४।। जीव के द्रव्य, गुण और पर्यायसंबंधी मूढ़ता ही मोह है। उक्त मोह से आच्छादित जीव राग-द्वेषरूप परिणमित होकर क्षोभ को प्राप्त होता है।
मोहरूप, रागरूप अथवा द्वेषरूप परिणमित जीव के विविध बंध होता है; इसलिए वे मोह-राग-द्वेष सम्पूर्णतः क्षय करनेयोग्य हैं।
उक्त गाथाओं का भाव आचार्य अमृतचन्द्र ने तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
गाथा-८३-८४
“धतूरा खाये हुए मनुष्य की भाँति द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी पूर्ववर्णित तत्त्व-अप्रतिपत्तिलक्षण जो जीव का मूढ़भाव है, वह मोह है।
आत्मा का स्वरूप उक्त मोह (मिथ्यात्व) से आच्छादित होने से यह आत्मा परद्रव्य को स्वद्रव्यरूप से, परगुण को स्वगुणरूप से और परपर्यायों को स्वपर्यायरूप से समझकर-स्वीकार कर अतिरूढ़ दृढ़तर संस्कार के कारण परद्रव्य को ही सदा ग्रहण करता हुआ, दग्धइन्द्रियों की रुचि के वश से अद्वैत में भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर-अरुचिकर विषयों में राग-द्वेष करके अति प्रचुर जलसमूह के वेग से प्रहार को प्राप्त पुल की भाँति दो भागों में खण्डित होता हुआ अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है।
इससे मोह, राग और द्वेष - इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है।
इसप्रकार तत्त्व-अप्रतिपत्तिरूप वस्तुस्वरूप के अज्ञान के कारण मोहराग-द्वेषरूप परिणमित होते हुए इस जीव को - घास के ढेर से ढंके हुए गड्डे को प्राप्त होनेवाले हाथी की भाँति, हथिनीरूप कुट्टनी के शरीर में आसक्त हाथी की भाँति और विरोधी हाथी को देखकर उत्तेजित होकर उसकी ओर दौड़ते हुए हाथी की भाँति - विविधप्रकार का बंध होता है; इसलिए मुमुक्षुजीव को अनिष्ट कार्य करनेवाले इस मोह, राग और द्वेष का यथावत् निर्मूल नाश हो - इसप्रकार क्षय करना चाहिए।" ___ आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं का जो अर्थ किया है; उसका भाव इसप्रकार है। ___ "शुद्धात्मादि द्रव्यों, उनके अनंत ज्ञानादि विशेष गुणों और अस्तित्वादि सामान्य गुणों तथा शुद्धात्मपरिणतिरूप सिद्धत्वादि पर्यायों तथा यथासंभव अन्य द्रव्य-गुण-पर्यायों में विपरीत अभिप्राय के कारण तत्त्व में संशय उत्पन्न करनेवाला जीव का मूढभाव दर्शनमोह है। उस दर्शनमोह से युक्त, निर्विकार शुद्धात्मा से रहित, इष्टानिष्ट इन्द्रियविषयों में हर्ष-विषादरूप राग-द्वेष - दोनों चारित्रमोह हैं।