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________________ ३० प्रवचनसार अनुशीलन सद्भाव ही नहीं है; अब शुभोपयोग ही रहा, सो यहाँ उसे कहा जा रहा है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है - " जबतक वीतराग नहीं हुआ, तबतक ऐसा मंद कषायरूप राग आता है; जिसे कषायकण कहते हैं । मुनिदशा में अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान नाम की तीन कषाय चौकड़ी का अभाव हुआ है, अल्प संज्वलन कषायकण बाकी है, जो पुण्य का कारण है। २८ मूलगुण और शुक्ललेश्या पुण्य का कारण है, उसका भी अभाव करके मुनि, मोक्षदशा प्राप्त करते हैं; इसलिए उसका अभाव करनेवाले को, शुभराग परम्परा से मोक्ष का उपचार मात्र कारण कहा है, किन्तु ‘मिथ्यादृष्टि का शुभराग तो परम्परा से सर्व अनर्थ का कारण है।' इसप्रकार पंचास्तिकाय शास्त्र में श्री जयसेनाचार्य ने टीका में कहा है। तक मुनिराज को पूर्ण अभेद का अवलम्बन नहीं है, वहाँ तक प्रत्याख्यान, सामायिक, वन्दन आदि का राग आता है; किन्तु वह आत्मा का स्वभाव नहीं है; क्योंकि वह कषायकण है, पुण्य बन्ध का कारण हैं; स्वभाव की प्राप्ति का किंचित् भी कारण नहीं। तब भी ऐसा शुभराग बीच में आ जाता है । अत: उसका ज्ञान कराया है। ज्ञानानन्दस्वभाव की एकाग्रता ही मुनिधर्म है; किन्तु पंच महाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुण मुनिधर्म नहीं, अपितु कषाय की कणिका है। जगत दृश्य है, ज्ञेय है और मैं दृष्टा ज्ञाता हूँ; किन्तु राग को लानेवाला मैं नहीं हूँ - ऐसे भान बिना सम्यग्दर्शन नहीं होता। जिसे सम्यग्दर्शन हुआ है, उन्हें राग को लाने की बुद्धि नहीं होती; फिर भी भूमिका अनुसार राग, क्रम में आ जाता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३३ २. वही, पृष्ठ-३४ गाथा-१-५ ३१ जो कषाय को लाना चाहते हैं; वे तो मिथ्यादृष्टि हैं । धर्मात्मा को क्रम में जो राग आ जाता है; वह तो चारित्र का दोष है; किन्तु श्रद्धा का दोष नहीं । 'राग को लाना और राग का आ जाना' इसमें अंतर है । जहाँ छठवें गुणस्थान के चारित्र का स्वकाल है और वहाँ इतना (अमुक) दोष है, उसे वे दोषरूप जानते हैं। निश्चयनय कहता है कि मुनि राग को नहीं पालते; किन्तु भूमिका में राग आ जाता है। सहचर जानकर उसे महाव्रत का पालन कहते हैं- ऐसा कहने में आता है । मुनि तो उसे निमित्तरूप - ज्ञेयरूप जानते हैं। मेरा स्वभाव सच्चिदानन्द स्वरूप है ऐसी दृष्टि तथा ज्ञान तो उन्हें हुआ है; किन्तु लीनता थोड़ी हुई है और थोड़ा कषायांश बाकी है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह की वृत्ति पुण्यबंध का कारण है; वह मोक्ष का कारण नहीं है। हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह का पाप परिणाम तीव्रकषायरूप क्लेश है और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और निष्परिग्रह का पुण्य परिणाम मंदकषायरूप क्लेश है । इसतरह दोनों ही कषाय-क्लेशरूप कलंक है। निष्कलंक - निर्मलानन्द का कारण तो वीतरागभाव ही है । स्वभाव - सन्मुखता - लीनता का होना ही मुक्ति का कारण है। साधकदशा में जो भी राग आता है, वह मुक्ति का कारण नहीं; पुण्यबंध का कारण है।' वीतरागदशा ही मोक्ष का कारण है और वही साम्यभाव है। महाव्रत पुण्यबंध के कारण कहे हैं और वीतरागचारित्र निर्वाण का कारण है। " आचार्य कुन्दकुन्द की मूल गाथाओं, उनकी तत्त्वप्रदीपिका टीका तथा इन दोनों की ब्रजभाषा में लिखी गई पाण्डे हेमराजजी की टीका को आधार १. दिव्यध्वनिसार भाग-१, पृष्ठ-३४ ३. वही, पृष्ठ-३६ ४. वही, पृष्ठ- ३६ ६. वही, पृष्ठ-३७ २. वही, पृष्ठ-३५ ५. वही, पृष्ठ-३७
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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