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गाथा-८०
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प्रवचनसार अनुशीलन पर्याय के बीच भेद ही अधर्म है।
पृथक्-पृथक् मोती विस्तार है, क्योंकि उनमें अनेकत्व है और सभी मोतियों के अभेद रूप में जो एक हार है, सो संक्षेप है। जैसे पर्याय के विस्तार को द्रव्य में संकलित कर दिया, उसीप्रकार विशेष्य-विशेषणपने की वासना को भी दूर करके, गुण को भी द्रव्य में ही अंतर्हित करके मात्र आत्मा को ही जानना और इसप्रकार आत्मा को जानने पर मोह का क्षय हो जाता है। पहले यह कहा था कि 'मन के द्वारा जान लेता है किन्तु वह जानना विकल्प सहित था और यहाँ जो जानने की बात कही है, वह विकल्प रहित अभेद का जानना है। इस जानने के समय पर का लक्ष्य तथा द्रव्य-गुण-पर्याय के भेद का लक्ष्य छूट चुका है।
यहाँ (मूल टीका में) द्रव्य, गुण, पर्याय को अभेद करने से संबंधित पर्याय और गुण के क्रम से बात की है। पहले कहा है कि 'चिद्विवर्तों को चेतन में ही संक्षिप्त करके' और फिर कहा है कि 'चैतन्य को चेतन में ही अंतर्हित करके' यहाँ पर पहले कथन में पर्याय को द्रव्य के साथ अभेद करने की बात है और दूसरे में गुण को द्रव्य के साथ अभेद करने की बात है। इसप्रकार पर्याय को और गुण को द्रव्य में अभेद करने की बात क्रम से समझाई है; किन्तु अभेद का लक्ष्य करने पर वे क्रम नहीं होते । जिस समय अभेद द्रव्य की ओर ज्ञान झुकता है, उसीसमय पर्यायभेद और गुणभेद का लक्ष्य एकसाथ दूर हो जाता है; समझाने में तो क्रम से ही बात आती है।' ___ हार में पहले तो मोती का मूल्य उसकी चमक और हार की गुथाई को जानता है, पश्चात् मोती का लक्ष्य छोड़कर यह हार सफेद है' इसप्रकार गुण-गुणी के भेद से हार को लक्ष में लेता है और फिर मोती, उसकी सफेदी और हार - इन तीनों के संबंध के विकल्प छूटकर मोती और उसकी सफेदी को हार में ही अदृश्य करके मात्र हार का ही अनुभव किया १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३६४-३६५
जाता है; इसीप्रकार पहले अरहंत का निर्णय करके द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप को जाने कि ऐसी पर्याय मेरा स्वरूप है, ऐसे मेरे गुण हैं और मैं अरहंत जैसा ही आत्मा हूँ। इसप्रकार विकल्प के द्वारा जानने के बाद पर्याय में अनेक भेद का लक्ष्य छोड़कर 'मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ' इसप्रकार गुण-गुणी भेद के द्वारा आत्मा को लक्ष में ले और फिर द्रव्य-गुण-पर्याय संबंधी विकल्पों को छोड़कर मात्र आत्मा का अनुभव करने के समय वह गुण-गुणी भेद भी गुप्त हो जाता है अर्थात् ज्ञानगुण आत्मा में ही समाविष्ट हो जाता है, इसप्रकार केवल आत्मा का अनुभव करना सो सम्यग्दर्शन है। ___ इसीप्रकार आत्मस्वरूप को समझनेवाला समझते समय तो द्रव्यगुण-पर्याय - इन तीनों के स्वरूप का विचार करता है; परन्तु बाद में गुण
और पर्याय को द्रव्य में समाविष्ट करके उनके ऊपर का लक्ष छोड़कर मात्र आत्मा को ही जानता है। यदि ऐसा न करे तो द्रव्य का स्वरूप ख्याल में आने पर भी गुण पर्याय संबंधी विकल्प रहने से द्रव्य का अनुभव नहीं कर सकेगा।
हार आत्मा है, सफेदी ज्ञानगुण है और मोती पर्याय है। इसप्रकार दृष्टांत और सिद्धान्त का संबंध समझना चाहिए। द्रव्य-गुण-पर्याय के स्वरूप को जानने के बाद मात्र अभेद स्वरूप आत्मा का अनुभव करना ही धर्म की प्रथम क्रिया है। इसी क्रिया से अनन्त अरहंत तीर्थंकर क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त करके केवलज्ञान और मोक्षदशा को प्राप्त हुए हैं। वर्तमान में भी मुमुक्षुओं के लिए यही उपाय है और भविष्य में जो अनन्त तीर्थंकर होंगे वे सब इसी उपाय से होंगे।
पहले विकल्प के समय मैं कर्ता हूँ और पर्याय मेरा कार्य है, इसप्रकार कर्ता-कर्म का भेद होता था, किन्तु जब पर्याय को द्रव्य में ही मिला
१. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३६५ २.वही, पृष्ठ-३६५-३६६