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________________ ३६२ प्रवचनसार अनुशीलन की प्रतीति हो गई है अर्थात् उसकी पर्याय शुद्ध होने लगी है और उसका दर्शनमोह नष्ट हो गया है।" अरहंत के समान ही इस आत्मा का पूर्ण शुद्धस्वभाव स्थापित करके उसे जानने की बात कही है। पहले, जो पूर्ण शुद्धस्वभाव को जाने उसके धर्म होता है, किन्तु जो जानने का पुरुषार्थ ही न करे उसके तो कदापि धर्म नहीं होता अर्थात् यहाँ ज्ञान और पुरुषार्थ दोनों साथ ही हैं तथा सत् निमित्त के रूप में अरिहंतदेव ही हैं, यह बात भी इससे ज्ञात हो गई । चाहे सौ टंची सोना हो, चाहे पचास टंची हो, दोनों का स्वभाव समान है; किन्तु दोनों की वर्तमान अवस्था में अन्तर है। पचास टंची सोने में अशुद्धता है, उस अशुद्धता को दूर करने के लिए उसे सौ टंची सोने के साथ मिलाना चाहिए। यदि उसे ७५ टंची सोने के साथ मिलाया जाय तो उसका वास्तविक शुद्धस्वरूप ख्याल में नहीं आयेगा और वह कभी शुद्ध नहीं हो सकेगा। यदि सौ टंची सोने के साथ मिलाया जाय तो सौ टंची शुद्ध करने का प्रयत्न करे, किन्तु यदि ७५ टंची सोने को ही शुद्ध सोना मान ले तो वह कभी शुद्ध सोना प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसीप्रकार आत्मा का स्वभाव तो शुद्ध ही है; किन्तु वर्तमान अवस्था में अशुद्धता है। अरहंत और इस आत्मा के बीच वर्तमान अवस्था में अन्तर है। वर्तमान अवस्था में जो अशुद्धता है, उसे दूर करना है; इसलिए भगवान के पूर्ण शुद्ध द्रव्यगुण- पर्याय के साथ मिलान करना चाहिए। जो अपने ज्ञानस्वभाव के द्वारा अरहंत की प्रतीति करता है, उसे अपने आत्मा की प्रतीति अवश्य हो जाती है और फिर अपने स्वरूप की ओर एकाग्रता करते-करते केवलज्ञान हो जाता है। इसप्रकार सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ करके केवलज्ञान प्राप्त करने तक का अप्रतिहत उपाय बता दिया गया है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३४३ २. वही, पृष्ठ- ३४४ ३४५ ३. वही, पृष्ठ- ३४५-३४६ गाथा - ८० ३६३ अरहंत और अन्य आत्माओं के स्वभाव में निश्चय से कोई अंतर नहीं है, अरहंत का स्वरूप अंतिम शुद्धदशारूप है; इसलिए अरहंत का ज्ञान करने पर समस्त आत्माओं के शुद्धस्वरूप का भी ज्ञान हो जाता है। स्वभाव से सभी आत्मा अरहंत के समान हैं; परन्तु पर्याय में अन्तर है। जो पहले और बाद के सभी परिणामों में स्थिर बना रहता है, वह द्रव्य है। परिणाम तो प्रतिसमय एक के बाद एक नये-नये होते हैं। सभी परिणामों में लगातार एक-सा रहनेवाला द्रव्य है। पहले भी वही था और बाद में भी वही है; इसप्रकार पहले और बाद का जो एकत्व है, सो अन्वय है और जो अन्वय है सो द्रव्य है। अरहंत के संबंध में पहले अज्ञानदशा थी, फिर ज्ञानदशा प्रकट हुई, इस अज्ञान और ज्ञान दोनों दशाओं में जो स्थिररूप में विद्यमान है, वह आत्मद्रव्य है। जो आत्मा पहले अज्ञानरूप था, वही अब ज्ञानरूप है। इसप्रकार पहले और बाद के जोड़रूप जो पदार्थ है, वह द्रव्य है। पर्याय पहले और पश्चात् की जोड़रूप नहीं होती, वह तो पहले और बाद की अलग-अलग (व्यतिरेकरूप) होती है और द्रव्य पूर्व पश्चात् के संबंधरूप (अन्वयरूप) होता है। जो एक अवस्था है, वह दूसरी नहीं होती और जो दूसरी अवस्था है, वह तीसरी नहीं होती, इसप्रकार अवस्था में पृथक्त्व है; किन्तु जो द्रव्य पहले समय में था, वही दूसरे समय में है और जो दूसरे समय में था, वही तीसरे समय में है, इसप्रकार द्रव्य में लगातार सादृश्य है। अरहंत की पहले की और बाद की अवस्था में जो स्थिर रहता है, वह आत्मद्रव्य है - यह कहा है, परन्तु यह भी जान लेना चाहिए कि आत्मद्रव्य कैसा है ? आत्मा ज्ञानरूप है, दर्शनरूप है, चारित्ररूप है; इसप्रकार आत्मद्रव्य के लिए ज्ञान, दर्शन और चारित्र विशेषण लागू होते हैं; इसलिए ज्ञान आदि आत्मद्रव्य के गुण हैं। द्रव्य की शक्ति को गुण कहा १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-३४६ २. वही, पृष्ठ- ३५५
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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