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________________ ३५८ प्रवचनसार अनुशीलन भगवान को सर्वज्ञता और वीतरागता है, शेष स्वभाव में अन्तर नहीं है, यह यहाँ स्पष्ट करते हैं। अरहन्त के आत्मा में और मेरी आत्मा में निश्चय से तफावत् (अन्तर) नहीं है । जो वास्तव में अरहन्त को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है अर्थात् कि मेरे आत्मा का द्रव्य - गुण इन्हीं के समान है। जैसी अरहन्त को पूर्ण पर्याय प्रगट हुई है; वैसी ही मुझे प्रगट करना है। जहाँ-जहाँ भी जिस चेतन की अथवा जिस जड़ की जो अवस्था होनेवाली है, वह भगवान के ज्ञान में प्रत्यक्ष वर्तती (जानने में आती) है। अहो ! केवलज्ञान की इतनी ताकत ! एक समय में तीनकाल - तीनलोक को जाने - ऐसी ताकत की प्रतीति होने पर स्वभाव सन्मुख हो, उसका मोह नाश को प्राप्त होता है। जैसे प्रत्येक लेंडीपीपर में चौंसठ पुटी ताकत है; वैसे ही प्रत्येक आत्मा में पूर्ण आनन्द, पूर्ण ज्ञान, पूर्ण दृष्टापना, पूर्ण शान्तरस, उपशम अनन्त र भरा पड़ा है। अहो! प्रत्येक आत्मा परिपूर्ण है। वर्तमान दशा में अटका है; इसलिए पर्याय से अन्तर दिखाई देता है; किन्तु स्वभाव से अन्तर नहीं है । जिसने अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय को जाना, उसने आत्मा को जाना है । ४ जैसे सोना द्रव्य है, पीलापन आदि उसके विशेषण हैं और जो कड़ा, कुण्डल, अंगूठी आदि बनती है, उसे अवस्था कहते हैं; वैसे ही आत्मा कायम रहनेवाला द्रव्य कहलाता है, ज्ञान-दर्शन आदि उसके गुण कहलाते हैं और समय-समय होनेवाली उनकी अवस्थाएँ हैं, वे व्यतिरेक कहलाती हैं। जैसे सोने में कड़ा अंगूठी का भेद पड़ता है; इसलिए उसे व्यतिरेक कहा है; वैसे ही आत्मा में विकारी अथवा अविकारी दशा व्यतिरेक है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- १९० ३. वही, पृष्ठ- १९२ २. वही, पृष्ठ- १९१ ४. वही, पृष्ठ- १९३-९४ गाथा- ८० ३५९ अरहन्त भगवान का केवलज्ञान अविकारी दशा है, वह व्यतिरेक है। आत्मा की नई-नई अवस्था होती है, उसे पर्याय कहते हैं। अरहंत का स्वरूप एकदम (पूर्ण) स्पष्ट है, उनको अपूर्णता नहीं रही । अरहंत का स्वरूप जानने पर निज आत्मा का ज्ञान होता है और इससे सभी आत्मा का ज्ञान होता है। भले ही वह अज्ञानी पर्याय में अटका है, किन्तु सभी का स्वभाव तो सर्वज्ञ होने का है - ऐसी प्रतीति होती है। यह गाथा अलौकिक गाथा है। चौदह पूर्व और बारह अंग में यही बात कहना है। जब भी आत्मा को इस विधि से ग्रहण करे, तब सम्यग्दर्शन होता है। प्रथम पर्यायों को संक्षेप करता है। जैसे मोतियों को झूलते हुए हार में संक्षेपन किया जाता है, वैसे ही आत्मा की पर्याय को आत्मा में ही द्रव्य की ओर झुकाते हैं। परिणमित होनेवाले आत्मा में पर्याय को अन्तर्हित करते हैं, यह सम्यग्दर्शन प्राप्त करने की अंतरंग क्रिया है । ४ पर्याय द्रव्य की ओर झुकने पर गुण-गुणी की कल्पना नाश को प्राप्त होती है, यह सच्ची धार्मिक क्रिया है।" जैसे सफेदी के सामने नहीं देखने पर सफेदी अदृश्य हो गई; वैसे ही चैतन्य को चेतन में अंतर्हित करता है। पर्याय, स्वभाव की ओर झुकने पर गुण-गुणी भेद नहीं रहा, फिर भी कहा कि चैतन्य को चेतन में ही अन्तर्हित करते हैं । इसप्रकार अरहंत के द्रव्य-गुण-पर्याय को जाने, उसको क्षायिक समकित होता है ऐसा कहते हैं। यह बात सर्वप्रथम श्रवण करे, बारम्बार विचार करे और निर्णय करे । यह सम्यग्दर्शन की पहली क्रिया है। आत्मा वस्तु है, उसके गुण है और उसकी भिन्न-भिन्न पर्यायें हैं। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ- १९५-९६ ३. वही, पृष्ठ- १९८ ५. वही, पृष्ठ-१९९ २. वही, पृष्ठ- १९६ ४. वही, पृष्ठ- १९९ ६. वही, पृष्ठ- १९९
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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