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________________ गाथा-७९ ३४७ ३४६ प्रवचनसार अनुशीलन देखो, कितने जोरदार शब्द हैं, आचार्यदेव का पुरुषार्थ किसप्रकार स्फुरायमान हो रहा है। भाषा तो देखो - __अहो मया मोहवाहिनी विजयाय वद्धा कक्षेयम् - इसलिए मैंने मोह की सेना को जीतने के लिए कमर कसी है। आचार्यदेव एक स्थान पर लिखते हैं कि जब तेरे परिणाम शिथिल होने लगे तो दीक्षा लेते समय के परिणामों को याद करना । तात्पर्य यह है कि दीक्षा लेते समय सभी के परिणाम उत्कृष्ट रहते हैं, सभी आत्मकल्याण की भावना से ही दीक्षा लेते हैं; किन्तु बाद में परिणाम शिथिल होते जाते हैं। यही कारण है कि मुनिपद में रहते हुए भी अनेक प्रकार के दंद-फंद में फंस जाते हैं। जिस परिग्रह का त्याग कर नग्न दिगम्बर दशा अंगीकार की थी; बस वह नग्नता ही रह जाती है, शेष सभी परिग्रह तो येनकेन प्रकारेण आ ही जाते हैं। लाखों छोड़े थे और अब करोड़ों में खेलते हैं; एक घर छोड़ा था, पर अब गाँव-गाँव में घर बना रहे हैं। देखो, आचार्यदेव तो शुभोपयोग परिणति को धूर्त अभिसारिका कह रहे हैं और शुभोपयोगपरिणतिवालों को महादुख संकट निकट बता रहे हैं; पर यहाँ तो शुभभाव भी कहाँ रहे ? जब उनके महादुख संकट निकट है, तब इनका क्या होगा? आचार्यदेव ने तो मोहवाहिनी को जीतने के लिए कमर कसी है; पर आज तो अपने से असहमत लोगों को नेस्तनाबूद करने के लिए कमर कसी जाती है, एकाध भव इसी काम को समर्पित कर देने की प्रतिज्ञाएँ भरी सभा में डंके की चोट पर की जाती हैं। जो भी हो, हमें तो अपने में झांकने का प्रयत्न करना चाहिए। यह दुनियाँ तो ऐसी ही चलती रहेगी। यह छोटा-सा मनुष्य भव, जिसका बड़ा हिस्सा तो बीत गया, जो थोड़ा-बहुत बचा है, उसमें हजार झंझटें; क्यों उलझे इन विकल्पों में, अपने में समा जाना ही श्रेयस्कर है। अस्तु... प्रश्न - यदि ऐसा है तो फिर आपने इतना भी क्यों लिखा ? उत्तर - विकल्प आया सो लिख दिया। किसी का भला होने का काल पक गया होगा तो उसे लाभ प्राप्त हो जायेगा, अन्यथा जो होना है, वह तो हो ही रहा है। इसमें हम क्या कर सकते हैं ? प्रश्न - यह भी तो हो सकता है कि यह पढ़कर कोई भड़क जाय ? उत्तर - हाँ, यह भी हो सकता है। जिसका अनंत संसार शेष होगा, वह तो भड़केगा ही। हमने तो किसी को भड़काने के लिए कुछ नहीं लिखा, जो कुछ भी लिखा है समझाने के भाव से ही लिखा है। फिर हमने किसी का नामोल्लेख तो नहीं किया, फिर भी कोई अपने माथे पर ले ले तो हम क्या कर सकते हैं ? अब छोड़ो भी इस बात को, इस चर्चा में अधिक समय लगाना हमें अभीष्ट नहीं है। __आचार्य जयसेन इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र के समान ही स्पष्ट करते हैं। इस गाथा के भाव कविवर वृन्दावनदासजी तीन छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है (मत्तयगन्द) पाप अरंभ सभी परित्यागि के, जो शुभचारित में वरतंता । जोयहमोह को आदि अनादिके, शत्रुनि को नहिं त्यागत संता ।। तो वह शुद्ध चिदानंद संपत्ति, को तिरकाल विर्षे न लहन्ता । याहीं तैं मोह महारिपुकी, रमनी दुरबुद्धि को त्यागहिं संता ।।२०।। (दोहा) तातें साध्यसरूप है, शुद्धरूप उपयोग। ताके बाधक मोह को, दिढ़तर तजिबो जोग ।।२१।। जो शुभ ही चारित्र को, जाने शिवपद हेत।। तो वह कबहुँ न पाय है, अमल निजातम चेत ।।२२।।
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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