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गाथा-७८
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प्रवचनसार अनुशीलन अन्ततोगत्वा अनेक आगम प्रमाणों, अनेक प्रबल युक्तियों और सशक्त उदाहरणों के माध्यम से यह समझाया गया है कि यह इन्द्रियसुख भी सुख नहीं, दुख ही है; इसकारण न तो पुण्य और पाप में द्वैत (भिन्नता) ठहरता है और न शुभाशुभभावों में द्वैत सिद्ध होता है। शुभ और अशुभ - दोनों ही भाव अशुद्धभाव हैं और इन अशुद्धभावों से कर्मों का बंधन ही होता है, कर्मबंधन छूटता, टूटता नहीं।
इसप्रकार शुभाशुभभाव बंध के कारण हैं; आस्रव हैं । पुण्य-पाप तो आस्रव ही हैं। कहा भी जाता है - पुण्यास्रव और पापास्रव, पुण्यबंध और पापबंध । इसप्रकार पुण्य और पाप आसव-बंध के रूप हैं।
यही कारण है कि आचार्य शुभपरिणामाधिकार में भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आत्मा का हित चाहनेवालों को एकमात्र शुद्धोपयोग ही शरण है।
यहाँ एक बात और भी विशेष ध्यान देने योग्य है कि अन्यत्र तो यह कहा जाता रहा है कि -
कर्म विचारे कौन भूल तेरी अधिकाई।
अग्नि सहे घनघात लौह की संगति पाई ।। अरे भाई ! कर्मों की क्या गलती है ? अधिकतम भूल तो तेरी ही है। तू दोष कर्मों के माथे क्यों मढ़ता है ? यदि लोहे के साथ अग्नि भी पिट गई तो इसमें लोहे का क्या दोष है ? अग्नि ने लोहे की संगति की, वह लोहे के गोले में प्रवेश कर गई: इसकारण लोहे के साथ-साथ उस पर भी घन के चोटे पड़ीं। यदि अग्नि लोहे की संगति नहीं करती तो उसे घन के प्रहार नहीं सहने पड़ते।
पर यहाँ इससे उल्टा कहा जा रहा है। यहाँ यह कहा जा रहा है कि जिसप्रकार अग्नि लोहे के तप्त गोले में से लोहे के सत्त्व को धारण नहीं करती; इसलिए अग्नि पर घन के प्रचण्ड प्रहार नहीं होते; उसीप्रकार परद्रव्य
का अवलम्बन न करनेवाले आत्मा को शारीरिक दुख का वेदन नहीं होता।
इस गाथा की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन - दोनों ही उक्त उदाहरण का एकसा प्रयोग करते हैं। शेष अर्थ भी समान ही है।
इस गाथा के भाव को कविवर वृन्दावनदासजी तीन छन्दों में समाहित करते हैं; जिसमें अन्तिम दो दोहे इसप्रकार हैं -
(दोहा) आहन” दाहन विलग, खात न घन की घात । त्यों चेतन तनराग बिनु, दुखलव दहत न गात ।।१८।। तातें मुझ चिद्रूप को, शरन शुद्ध उपयोग।
होहु सदा जातै मिटै, सकल दुखद भवरोग ।।१९।। जिसप्रकार लोहे के गोले से भिन्न रहती हुई अग्नि को घन की चोटे नहीं खानी पड़तीं; उसीप्रकार देह के राग से रहित चेतन को शरीर संबंधी रंचमात्र भी दुख नहीं होता। ___ इसलिए चैतन्यस्वरूप मुझे एकमात्र शुद्धोपयोग की ही शरण होवे; जिससे दुख देनेवाले सभी भवरोग सदा के लिए मिट जावें। __ आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“पाप के फल में दुख है - ऐसा तो सभी कहते हैं, किन्तु यहाँ तो कहते हैं कि पुण्य का सुख भी आकुलतामय होने से दुख का साधन है। पूर्व पुण्य के कारण सामग्री मिले, उसे भोगने जाए तो वहाँ दुख होता है; इसलिए कहा कि पुण्य परिणाम दुख उत्पन्न करता है, वह सुख का साधन नहीं है। धनवान हो अथवा निर्धन, राजा हो अथवा रंक; उन सभी का पर की ओर लक्ष्य जाता है, इसलिए वे दुखी हैं।' १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१७९